________________ 404 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश 117), श्रायस (116), श्रेयस् (51, 75), निःश्रेयस (50), निरंजना शान्ति (12), उच्चशिवताति (15), शाश्वतशर्मावाति (71), भवरलेश-भयोपशान्ति (80) और भवोपशान्ति तथा प्रभव-सौख्य-संप्राप्ति (115) जैसे पदवाक्यों अथवा नामोंके द्वारा उल्लिखित किया है। इनमेंसे कुछ नाम तो शुद्धस्वरूपमें स्थितिपरक अथवा प्रवृत्तिपरक हैं, कुछ पररूपसे निवृत्तिके द्योतक है और कुछ उस विकासावस्था में होनेवाले परम शान्ति-सुखके सूचक है। 'जिनश्री' पद उपमालंकारको दृष्टिसे 'प्रात्मलक्ष्मी' का ही वाचक है; क्योंकि घातिकर्मसे रहित शुद्धात्माको अथवा प्रात्मलक्ष्मी के सातिशय विकासको प्राप्त प्रात्माको ही 'जिन' कहते हैं। 'जिनश्री' का ही दूसरा नाम 'निजश्री' है / 3 'जिन' और अर्हत्पद समानार्थक होनेसे पार्हन्त्यलक्ष्मीपद भी प्रात्मलक्ष्मीकाही वाचक है। इसी स्वात्मोपलब्धिको -पूज्यपाद प्राचार्यने, सिद्धभक्ति में, "सिद्धि' के नाममे उल्लेखित किया है / अपने शुद्धस्वरूप में स्थितिरूप यह मात्माका विकास ही मनुष्योंका स्वार्थ है-असली स्वप्रयोजन है-क्षरणभंगुरभोग-~-इन्द्रिय-विषयोंका मेवन-उनका स्वार्थ नहीं हैं; जैसा कि ग्रन्थके निम्न वाक्यसे प्रगट है स्वास्थ्यं यदात्यान्तिकमेष पुंसां स्वार्थो न भोगः परिभंगुरात्मा तृषोऽनुषंगान्न च तापशान्तिरितीदमाख्यद्भगवान्सुपार्वः // 3| और इसलिये इन्द्रिय-विषयोंको भोगनेके लिये-उनसे तृप्ति प्राप्त करनेके लिए-जो भी पुरुषार्थ किया जाता है वह इस ग्रन्यके कर्मयोगका विषय नहीं है। उक्त वाक्यमें ही इन भोगोंको उत्तरोतर तृष्णाकी-भोगाकांक्षाकी-वृद्धिके कारण बनलाया है, जिससे शारीरिक तथा मानसिक तापकी शान्ति होने नहीं पाती। अन्यत्र भी ग्रन्थमें इन्हें तृष्णाकी अभिवृद्धि एवं दु.ख-संतापके कारण बतलाया है तथा यह भी बतलाया है कि इन विषयों में प्रासक्ति होनेसे मनुष्योंकी सुखपूर्वक स्पिति नहीं बनती और न देह अथवा देही (प्रात्मा) का ॐ स्तुतिविद्याके पार्श्वजिन-स्तवनमें 'पुरुनिजश्रियं' पदके द्वारा इमी नामका उल्लेख किया गया है। * + "सिद्धिः स्वास्मोपलब्धि: प्रगुणगुणगणोच्छादि-दोषापहारात्।"