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________________ स्वामी पात्रकेसरी ओर विद्यानन्द 655 AAN कर्तृत्व इस विषय में नहीं ठहरेगा। इससे तद्विषयक प्रबन्धकी रचनाके कारण यह पात्रकेसरिकृत है, इसपर मूलसूत्रकारने-श्रीमकलंकदेवने-विचार किया है और इसलिये ( वास्तवमें तो) पूर्ण रूपसे साक्षात् करके उपदेश देनेवाले तीर्थकर भगवानका ही यह हेतु निश्चित होता है और यही अमलालीढत्वमें कारण कहा गया है।' ___इस पुरातन-चर्चा परसे कई बातें स्पष्ट जाती जाती हैं-एक तो यह कि अनन्तवीर्य प्राचार्य के समयमें पात्रकेसरी स्वामी एक बहुत प्राचीन प्राचार्य समझे जाते थे, इतने प्राचीन कि उनको कथा प्राचार्य-परम्पराको कथा होगई थी; दूसरे यह कि, 'विलक्षणकदर्थन' नामका उनका कोई अन्य जरूर था; तीसरे यह कि, 'अन्यथानुपपन्नत्वं नामके उक्त श्लोकको पात्र केमरीकी कृति समझनेवाले तथा सोमंधरस्वामीको कृति बतलानेवाले दोनों हो उस समय मौजूद थे और जो सीमधरस्वामीकी कृति बतलाते थे वे भी उसका अवतार पात्रकेसरीके लिये समझते थे; चौथे यह कि मूलसूत्रकार श्रीप्रकलंकदेवके सामने भी पात्र. केमरिविषयक यह सब लोकस्थिति मौजूद थी और उन्होंने उसपर विचार किया था और उस विमारका ही यह परिणाम है जो उन्होंने सीमंधर या पात्रकेसरी दोनों ने किमी एक का नाम न देकर दोनोंके लिये समानरूपसे व्यवहत होनेवाले 'स्वामिन्' शब्दका प्रयोग किया है / ऐसी हालतमें पात्रकेसरी स्वामी विद्यानन्दमे भिन्न व्यक्ति थे और वे उनसे बहुत पहले हो गए है इस विषय में सन्देहको कोई अवकाश नही रहना; बल्कि साथ ही यह भी मालूम हो जाता है कि पात्रकेसरी उन प्रकलं कदेवसे भी पहले हुए हैं जिनको मष्टशतीको लेकर विद्यानन्दने अष्टसहस्री लिखी है। (8) बेनूर ताल्लुकेके शिनालेस्व नं० 17 में भी पात्रकेसरीका उल्लेख है। यह शिलालेख रामानुजाचार्य-मन्दिरके प्रहातेके अन्दर सौम्यनायकी-मन्दिरके छनके एक पत्थरपर उत्कीरगं है और शक मवत 1056 का लिखा हुपा है / इसमें समन्तभद्रम्वामोके बाद पाषकेसरीका होना लिखा है और उन्हें समन्तभद्रके द्रमिलसंघका प्रसर मूचित किया है। साथ ही, यह प्रकट किया है कि पात्र देखो, 'एपिप्रेफिका कर्णाटिका' जिल्द 5 भाग १ला।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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