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________________ 654 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पात्रकेसरिणोऽपि वा न भवेत्तेनाप्यन्यायं तत्करणास्तेनाप्यन्यार्थमिति न कस्यचित्स्यायेन तद्विषयप्रबंधकरणात्पात्रकेसरिणस्तदिति चिन्तित मूलसूत्रकारेण कस्यचिद्व्यपदेशाभावप्रसंगान। तस्मात्साकल्येनसाक्षास्कृत्योपदिशत एवायं भगवतस्तीर्थकरस्य हेतुरिति निश्चीयते एतच्चामलालीढत्वे कारणमुक्तं / - यह सारी चर्चा वास्तवमें प्रकलंकदेवके मूलसूत्र ( कारिका ) में प्रयुक्त हुए 'अमलालीढं और स्वामिनः' ऐसे दो पदोंकी टीका है। और इससे ऐसा जान पड़ता है कि, प्रकलङ्कदेवने हेतुके 'प्रन्यथानुपपत्येकलक्षण' का 'प्रमलालीढ' विशेषरण देकर उसे अमलों (निर्दोषों)-गरणधगदिकों द्वारा प्रास्वादित बतलाया है और साथ ही 'स्वामिनः' पदके द्वारा प्रतिपादित किया है कि वह 'स्वामिकृत' है। इसपर टीकाकारने यह चर्चा की है कि-यहाँ 'स्वामी' शन्दसे कुछ विद्वान् लोग पात्रकेसरी स्वामीका अभिप्राय लेने है-उस हेतुलक्षणको पात्रकेसरिकृत बतलाते हैं-और उसका हेतु यह देते हैं कि पात्रकेमरीने चकि हेतुविषयक विलक्षणकदर्थन' नामके उत्तरभाष्यकी रचना की है इसीमे यह हेतुलक्षण उन्हींका है / यदि ऐमा ही है-ऐसा हो हेतुप्रयोग है-तब तो वह प्रशेष विषयको साक्षात् करनेवाले मीमंधरस्वामि-नीर्थकर-कृत होना चाहिय; क्योंकि उन्होंने ही पहले अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं / नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं' इस वाक्यकी मृष्टि की है। यदि यह कहा जाय कि सीमंधरस्वामीन ऐमा किया इसके जानने का क्या साधन है ? तो फिर पात्र. केमरीने विलक्षणका कदर्थन किया इसके जानने का भी क्या साधन है ? यदि इसे प्राचार्यपरम्परामे प्रसिद्ध माना जाय तो सीमंधर स्वामीका कर्तृत्व भी उक्त श्लोकके विषयमें प्राचार्यपरम्परामे प्रसिद्ध है / दोनों मोर कथा समानरूपसे इसके कर्तृत्वविषयमें मुप्रसिद्ध है / यदि यह कहा जाय कि मीमंधर स्वामीने चकि पात्रकेसरीके लिये इमको मष्टि की है इसलिये यह पात्रकमरिकृत है तब तो सर्वशास्त्रसमूह तीर्थकरके द्वारा प्रविधय ठहरेगा और इमलिये यह कहमा होगा कि वह शिष्योंका किया हुप्रा ही है, सीर्थकरकृत नहीं है / एमी हालत पात्रकेसरीका कर्तृत्व भी नहीं रहेगा; क्योंकि उन्होने दूमोंके लिये इसकी रचना की। और इसी तरह दूसरोंने और दूसरोंके लिये रचना की; तब किसीका भी
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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