________________ स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द 653 (7) प्रकलंकदेवके ग्रन्थोंके प्रधान टोकाकार श्रीअनन्तवीर्यने प्राचार्य बिनका प्राविर्भाव प्रकलंकदेवके अन्तिम जीवन में प्रथवा उनमे कुछ ही वर्षों बाद हमा जान पड़ता है और जिनकी उक्तियोंके प्रति प्रमाचन्द्राचायंने अपने 'न्यायकुमुदचन्द्रोदय' में बड़े ही महत्त्व तथा कृतज्ञताका भाव प्रकट किया है. अकलंकदेवकृत "सिद्धि विनिश्चय' ग्रन्थको टीका कि 'हेतुलक्षण सिद्धि'नामक छठे प्रस्तावमें पाषकेसरी स्वामी, उनके विलक्षगणकदर्थन' अथ और उनके 'अन्यथानुपपन्नत्व' नामके उस प्रसिद्ध श्लोकका उल्लेख करते हुए, जो महत्त्वकी चर्चा तथा सूचना की है वह इस प्रकार है: ननु सदापं तदनस्तदुपरि ज्ञानमदोषायनि चंदवाह-'अमलालीढ' अमलेगणघरप्रभृतिभिरालोढमास्वादितं न हि ते सदोषमालिहन्त्यमलत्वहानेः / कम्य तदित्यत्राह-स्वामिनः' पात्रमरिण : इत्येके / कुत एतत्तेन तद्विषयत्रिलक्षणकदथनमुत्तरमाप्य यतः कृतमिति चेत् नन्वेवं ( तह) मीमन्धरभट्टारकस्याशेपार्थसाक्षात्कारिणस्तीथकरस्य स्यात्तेन हि प्रथमं 'अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयण किं / नान्यथानुपन्नत्वं यत्र तत्रत्रयण किं.' इत्यतत्कृतं / कथामदभवगम्यत इति चेन पात्रकेसरिणा विलक्षणक्दथनं कृतामांतव.थमदगम्यत इति, समानमा. चार्यप्रसिद्धरित्यपि समानमुभरत्र कथा च महती मुप्रसिद्धा तस्य तत्कृतत्वे प्रमाणप्रामाण्य तत्प्रिसिद्धी कः ममाश्यामः / तदर्थ करणात्तम्यति चेत्तर्हि सर्व शास्त्रं तदविधेयं चात व शिष्याणामेव न तत्कृतमिति व्यपदिश्यत + सिद्धि विनिश्चय' ग्रथकी खोज होने पर हालमे यह उसकी सोलहसवरह हजार इलोकपरिमागा टीका गृजरात-पुरातत्त्व-मन्दिर महमदाबादको प्रास हुई है और मुझे गतवर्ष वही पर इसके पन्ने पलटनेका सौभाग्य प्राप्त हमा है। यह टीका बड़े महत्वकी है परन्तु यह जानकर खंद हुमा कि इसमें मूलसूत्र पूरे नहीं दिये-प्राद्याक्षरोंकी सूचना रूपमे पाये जाते हैं / मूल ग्रन्यकी खोज होने की बहुत बड़ी जरूरत है / क्या ही अच्छा हो यदि कोई समयं जिनवाणी-भक्त इसका मूल-सहित उद्धार करा कर अपनी जिनवाणी-भक्तिका सच्चा परि. चब देखें।