________________ 652 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश कथंचिदसदात्मानो यदि वाऽऽत्मघटादयः / कथंचिदपलभ्यत्वाखरसम्बंधिगवत् // 1375 / / कथंचन सदात्मानः शशगादयोपि च / कथंचिदुपलभ्यत्वाद्यथैवात्मघटादयः / / 1376 / / त्वदीयो वापि तत्रास्ति वेश्मनीत्यवगम्यते / भावत्कपितृशब्दस्य श्रवणादिह सद्मनि // 1377 / / अन्यथानुपपत्यैव शब्ददीपादिवस्तुषु / अपक्षधर्मभावेऽपि दृष्टा ज्ञापकताऽपि च / / 1378 / / तेनैकलनगो हेतुः प्राधान्याद् गमकोस्तु नः / पक्षधर्मादिभिन्त्वन्यैः किं व्यर्थः परिकल्पितः / / 1376 || इन वाक्योंका विषय प्राय: त्रिरूपात्मक हेतुलक्षण का कदर्थन करना है, और इससे ये पात्रकेसरीके 'त्रिलक्षणकदर्थन' ग्रंथमे ही उद्धत किये गये जान पड़ते हैं / अस्तुः शान्तरक्षितका समय ई० मन् 705 मे 162 तक और कमलशीलका 713 मे 763 तक पाया जाता है / ये दोनों प्राचार्य विद्यानन्दमे पहले हुए हैं। क्योंकि विद्यानन्द प्राय: 6 वीं शताब्दी के विद्वान् है / और इम लिये इनके ग्रंथमें पात्रकेसगे स्वामी और उनके वाक्यों का उल्लेख होनेमे यह स्पष्ट जाना जाता है कि पात्रमरी स्वामी विद्यानन्दमे बहुत पहले हो गये हैं / - देखो,श्रीयुत वी० भट्टाचार्यद्वारा लिम्बित ग्रन्थ की भूमिका {Foreword) | ये दोनों प्राचार्य नालन्दाके विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे हैं और वहीम ययावसर तिब्बतके राजा द्वाग निमंत्रित होकर निवन भी गये हैं। निबनके राजा Khri-sron-deutsan ( सिम्रोन्दे उत्मन् ) ने शान्तक्षितकी महायतामे ई० मन् 746 में एक विहार ( मठ ) अपने यहाँ निर्माण किया था। प्रोर कमलशीलने 'महायानहोशंग' नामक चीनी साधुको पगम्त नथा निर्वासित कर के अपने गुरु पद्मसम्भव और शान्तरक्षितके धार्मिक विचारोंकी निब्बतमें रक्षा की थी; ऐसा डा० शतीश्चन्द्र विद्याभूषगाकी हिस्टरी अाफ़ विमिडियावल स्कूल आफ इन्डियन लाजिक' में जाना जाता है।