________________ 574 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश उल्लेखित होने चाहिये, उसी प्रकार किस प्रकार समन्तभद्र 'स्वामी' नामले उल्लेखित मिलते हैं / खोज करनेपर, श्वेताम्बरसाहित्य में इसका एक उदाहरण' अजरक्खनंदिसेणो' नामकी उम गाथामें मिलता है जिसे मुनि पुण्यविजयजीने अपने 'छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार' नामक लेख में 'पावयणी धम्मकही' नामकी गाथाके साथ उद्धृत किया है और जिसमें पाठ प्रभावक प्राचार्यों की नामावली देते हुए 'दिवायरो' पदके द्वारा सिद्धसेनदिवाकरका नाम भी सूचित किया है। ये दोनों गाथाएं पिछले समयादिसम्बन्धी प्रकरणके एक फुटनोट में उक्त लेखकी चर्चा करते हुए उद्धृत की जा चुकी है / दिगम्बर साहित्यमें 'दिवाकर' का यतिरूपसे एक उल्लेख रविषेरणाचार्यके पद्मचरितकी प्रशस्तिके निम्न वाक्यमें पाया जाता है, जिसमें उन्हें इन्द्र-गुरुका शिष्य, प्रर्हन्मुनिका गुरु और रविषेरण के गुरु लक्ष्मणसेनका दादागुरु प्रकट किया है: प्रासीदिन्द्रगुरोदिवाकर-यतिः शिष्योऽम्य चाहन्मुनिः / . तस्मालक्ष्मणसेन-सन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम् / / 123-167 / / इस पद्यमे उल्लेखित दिवाकरयतिका सिद्धमेनदिवाकर होना दो कारणोंसे अधिक सम्भव जान पड़ता है-एक तो समयकी दृष्टिले और दूसरे गुरु-नामकी दृष्टिसे / पद्मचरित वीरनिर्वाणसे 1203 वर्ष 6 महीने बीतनेपर अर्थात् विक्रमसंवत् 734 में बनकर समाप्त हुआ है , इससे रविषेणके पड़ दादा (गुरुके दादा') गुरुका समय लगभग एक शताब्दी पूर्वका अर्थात् विक्रमकी सातवीं शताब्दीके द्वितीय चरण (626-650) के भीतर प्राता है जो सन्मतिकार सिमेनके लिये ऊपर निश्चित किया गया है। दिवाकरके गुरुका नाम यहाँ इन्द्र दिया है, जो इन्द्रसेन या इन्द्रदत प्रादि किसी नामका संक्षिप्त रूप अथवा एक देश मालूम होता है। श्वेताम्बर-पट्टाबलियोंमें जहां सिद्धसेनदिवाकरका नामोल्लेख किया है वहाँ इन्द्रदिन्न नामक पट्टाचार्यके बाद 'पत्रान्तरे' जैसे शब्दोंके साथ उस नामकी वृद्धि की गई है। हो सकता है कि सिद्धमेनदिवाकर (r) देखो, माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालामें प्रकाशित रस्नकरावकाचारकी प्रस्तावना पृ० 8 / | द्विशताभ्यधिके समासहस्र समतीते चतष्कवर्षयक्त / ": जिनभास्कर-वर्द्धमान-सिद्ध चरित मुनेरिद निवदन // 123-161 / /