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________________ ___सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन गम्भीर स्तुतियां और कहाँ प्रशिक्षित मनुष्योंके पालाप-जसा भरी यह रचना? फिर भी यूथके अधिपति गजराजके पथपर चलता हया उसका बच्चा (जिस प्रकार) स्खलितगति होता हुआ भी शोचकीय नहीं होता-उसी प्रकार में भी अपने यूथाधिपति प्राचार्यके पथका अनुसरण करता हुआ स्खलित होनेपर शोचनीय नहीं हूँ।' यहाँ 'स्तुतयः' 'यूथाधिपतेः' और 'तस्य शिशुः' ये पद्य खास तौरसे ध्यान देने योग्य हैं / 'स्तुतयः' पदके द्वारा सिद्ध सेनीय ग्रन्थों के रूपमें उन द्वात्रिशिकाओंकी सूचना की गई है जो स्तुत्यात्मक हैं और शेष पदोंके द्वारा सिद्धसेनको अपने सम्प्रदायका प्रमुख प्राचार्य और प्रपनेको उनका परम्परा-शिष्य घोषित किया गया है। इस तरह श्वेताम्बर-सम्प्रदायके प्राचार्यरूप में यहां वे सिद्धसेन विवक्षित है जो कतिपय स्तुतिरूप द्वात्रिशिकायोंके कर्ता हैं, न कि वे मिद्ध सेन जो कि स्तुतिभिन्न द्वात्रिंशिकानोंके अथवा खासकर सन्मतिमूत्रके रचयिता हैं / श्वेताम्बरीय प्रबन्धोंमें भी,जिनका कितनाही परिचय ऊपर प्राचुका है, उन्हीं सिद्धसेनका उल्लेख मिलता है जो प्राय: द्वात्रिंशिकामों अथवा द्वाविशवात्रिंशिका-स्तुतियों के कर्तारूपमे विवक्षित है / सन्मतिमूत्रका उन प्रबन्धों में कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है / ऐमी स्थिति में सन्मतिकार सिदमेनके लिये जिस 'दिवाकर' विशेषरणका हरिभद्रसूरिने उल्लेख किया है वह बादको नाम-साम्यादिके कारण द्वात्रिशिकायोक कर्ता सिद्धमेन एवं न्यायावतारके का सिद्धसेनके साथ भी जुड़ गया मालूम होता है और सम्भवत: इस विशेशरणके जुड़ जानेके कारण ही तीनों मिद्धसेन एक ही समझ लिये गये जान पड़ते हैं। अन्यथा, प० सुखलालजी प्रादिके शब्दों. (प्र० 10 103 ) में जिन द्वाविंशिकामोंका स्थान सिद्धसेनके ग्रन्थोंमें चढना हुमा है उन्हींके द्वारा मिद्धमेनको प्रतिष्ठिनयश बतलाना चाहिये था, परन्तु हरिभद्रसूरिने वैसा न करके सन्मतिके द्वारा सिद्धसेनका प्रतिष्ठतयश होना प्रतिपादित किया है और इससे यह माफ ध्वनि निकलती है कि सन्मतिके द्वारा प्रतिष्ठितयश होनेवाले सिद्धसेन उन सिद्धमेनसे प्राय: भिन्न हैं जो द्वात्रिशिकामोंको रचकर यशस्वी हुए है। हरिभद्रसूरिके कथनानुसार जब सन्मतिके कर्ता सिद्धसेन 'दिवाकर'को प्राख्याको प्रास पे तब वे प्राचीनसाहित्यमें सिद्धसेन नामके बिना 'दिवाकर' नामसे भी
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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