________________ 572 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इस प्रकार है: (क) उदितोऽर्हन्मत-व्योम्नि सिद्धसेनदिधाकरः / चित्रं गोभिः क्षितौ जह कविराज-बुध-प्रभा॥ यह विक्रमकी १३वीं शताब्दी (वि० सं० 1252) के ग्रन्थ मममचरित्रका पद्य है / इसमें रत्नसूरि अलङ्कार-भाषाको अपनाते हुए कहते हैं कि 'प्रहन्मतरूपी माकाशमें सिद्धसेन-दिवाकर का उदय हुअा है, प्राश्चर्य है कि उसकी वचनरूप-किरणोंसे पृथ्वीपर कविराजकी-वृहस्पतिरूप 'शेष' कविकी-और बुधको-बुधग्रहरूप विद्वर्गकी-प्रभा लज्जित हो गई-फीकी पड़ गई है।' (ख) तमतोम स हन्तु श्रीमिद्धसेनदिवाकरः / __ यस्योदये स्थितं मूकैरुलूकैरिव वादिभिः // ___ यह विक्रमकी १४वीं शताब्दी. ( सं० 1324 ) के ग्रन्थ समरादित्यका वाक्य है, जिसमें प्रद्य म्नमूरिने लिखा है कि 'वे श्रीसिद्धसेन दिवाकर (प्रज्ञान) अन्धकारके समूहको नाश करें जिनके उदय होने पर वादीजन उल्लुरोंकी तरह मूक होरहे थे-उन्हें कुछ बोल नहीं पाता था / ' (ग) श्रीसिद्धसेन-हरिभद्रमुरवाः प्रसिद्धाः स्तसुरयो मयि भवन्तु कृतप्रसादाः / येपां विमृश्य सततं विविधानिवन्धान, शास्त्रं चिकीर्षति तनुप्रतिभोऽपि माइक् / / यह 'स्याद्वादरत्नाकर' का पद्य है / इसमें १२वीं-१३वीं शताब्दीके विद्वान् वादिदेवसूरि लिखते हैं कि 'श्रीसिद्ध मेन और हरिभद्र जैसे प्रसिद्ध प्राचार्य मेरे ऊपर प्रसन्न होवें, जिनके विविध निबन्धोंपर बार-बार विचार करके मेरे जैसा अल्प-प्रतिभाका धारक भी प्रस्तुत शास्त्रके रचने में प्रवृत्त होता है / ' (घ) क्व सिद्धसेन-स्तुतयो महा अशिक्षितालापकला क्व चैषा। तथाऽपि यूथाधिपते: पथस्थ: स्वलद्गतिस्तस्य शिशुन शोच्यः / / यह विक्रमकी १२वीं-१३वीं शताब्दीके विद्वान् प्राचार्य हेमचन्द्रकी एक द्वात्रिंशिका-स्तुतिका पद्य है / इसमें हेमचन्द्रमूरि सिद्धसेनके प्रति अपनी श्रद्धाजलि अर्पण करते हुए लिखते हैं कि 'कहाँ तो सिद्धसेनकी महान् पावली