________________ सन्मतिसूत्राऔर सिद्धसेन . 571 को गलतरूपमें समझनेका परिणाम है / विक्रमादित्य नामके अनेक राजा हुए है। यह विक्रमादित्य वह विक्रमादित्य नहीं है जो प्रचलित संवत्का प्रवर्तक है, इस बातको पं० सुखलालजी प्रादिने भी स्वीकार किया है। प्रस्तु; तपागच्छपदावलीकी यह वृत्ति जिन प्राधारोंपर निर्मित हुई है उनमें प्रधान पद तपागच्छको मुनि सुन्दरसूरिकृत गुर्वावलीको दिया गया है, जिसका रचनाकाल विक्रम संवत् 1466 है / परन्तु इस पट्टावलीमें भी सिद्धसेनका नामोल्लेख नहीं है / उक्त वत्तिसे कोई 100 वर्ष बादके ( वि० सं० 1736 के बादके ) बने हुए 'पट्टावलीसारोद्धार ग्रन्थमें सिद्ध मेनदिवाकरका उल्लेख प्रायः उन्हीं शब्दोंमें दिया है जो उक्त वत्ति में 'तथा' से 'संजातं' तक पाये जाते है। और यह उल्लेख इन्द्रदिन्नमूरिके बाद 'पत्रान्तरे' शब्दोंके साथ मात्र कालकमूरिके उल्लेखानन्तर किया गया है-आर्यखपुट्ट, प्रार्यमंगु, वृद्ध वादी और पादलिप्त नामके प्राचार्योका कालकसूरिके अनन्तर और सिद्धसेनके पूर्व में कोई उल्लेख ही नहीं किया है / वि०सं० 1786 मे भी बादकी बनी हुई श्रीगुरुपट्टावली में भी सिद्धसेनदिवाकरका नाम उज्जयिनीकी लिगस्फोटन-सम्बन्धी घटनाके साथ उल्लेखित है * / इस तरह श्वे० पट्टावलियों-गुर्वावलियोंमें सिद्ध सेनका दिवाकररूपमें उल्लेख विक्रमकी १५वीं शताब्दीके उत्तरार्धमे पाया जाता है कतिपय प्रबन्धों में उनके इस विशेषणका प्रयोग सौ-दो मौ वर्ष और पहलेमे हुमा जान पड़ता। रही स्मरणोंकी वात, उनकी भी प्रायः ऐसी ही हालत है-कुछ स्मरण दिवाकरविशेषणको साथमें लिये हुए हैं और कुछ नहीं है / श्वेताम्बर-साहित्यसे सिद्ध सेनके श्रद्धाञ्जलिरूप जो भी स्मरण अभी तक प्रकाशमें पाये है वे प्राय: "तथा श्रीसिद्ध सेनदिवाकरोपि जातो येनोज्जयिन्यां महाकालप्रामादे रुद्रलिंगस्फोटनं कृत्वा कल्याणमन्दिरस्तवनेन श्रीपाश्र्वनाथबिम्ब प्रकृटीकृत्य श्रीविक्रमादित्यराजापि प्रतिबोषितः श्रीवीरनिर्वाणात् सप्ततिवर्षाधिक शतचतुष्टये 470 ऽतिक्रमे श्रीविक्रमादित्यराज्यं संजातं // 10 // पट्टावलीसमुच्चय पृ० 150 . "तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरेणोजयिनीनगर्या महाकालप्रासादे लिंगस्फोटनं विषाय स्तुत्या 11 काव्ये श्रीपाश्र्वनाथबिम्ब प्रकृटीकृतं, कल्याणमन्दिरस्तोत्रं कृत.।' -पट्टा० स० पृ० 166