________________ - सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 575 के गुरुका नाम इन्द्र-जेसा होने और सिद्धसेनका सम्बन्ध प्राद्य विक्रमादित्य अथवा संवत्प्रवर्तक विक्रमादित्यके साथ समझ लेनेकी भूलके कारण ही मिद्धसेनदिवाकरको इन्द्रदिन्न प्राचार्यको पट्टबाह्म-शिष्यपरम्परामें स्थान दिया गया हो / यदि यह कल्पना ठीक है और उक्त पद्यमें 'दिवाकरयतिः' पद्य सिद्धसेनाचार्यका वाचक है तो कहना होगा कि सिद्धसेनदिवाकर रविषणाचार्यके पड़दादागुरु होनेसे दिगम्बर-सम्प्रदायके प्राचार्य थे / अन्यथा यह कहना अनुचित न होगा कि सिद्धसेन अपने जीवन में 'दिवाकर'की प्राख्याको प्राप्त नही थे, उन्हें यह नाम अथवा विशेषण बादको हरिभद्रसूरि अथवा उनके निकटवर्ती कि पूर्वाचार्यन अलङ्कार की भाषामें दिया है और इसीसे सिद्धसेनके लिए उसका स्वतन्त्र उल्लेख प्राचीन साहित्य में प्राय: देखनेको नहीं मिलता। श्वेताम्बर-साहित्यका जो एक उदाहरगा ऊपर दिया गया है वह रत्नशेखर मूरिकृत गुरुगुणनिशिकाकी स्वोपज्ञवृत्तिका एक वाक्य होने के कारण 500 वर्षसे अधिक पुराना मालूम नहीं होता और इस लिये वह सिद्धसेनकी दिवाकररूपमें बहत बाद की प्रसिद्धि से सम्बन्ध रखता है / आजकल तो सिद्धसेनके लिये दिवाकर नामके प्रयोगकी वाद-सी प्रारही है, परन्तु अति प्राचीनकालमें वैसा कुछ भी मालूम नहीं होता। यहाँपर एक बात और भी प्रकट कर देने की है और वह यह कि उक्त श्वेताम्बर-प्रबन्धो तथा पट्टावलियों में सिद्धसेनके साथ उज्जयिनीके महाकालमन्दिरमें लिङ्गस्फोटनादि-सम्बन्धिनी जिस घटनाका उल्लेख मिलता है उसका वह उल्लेख दिगम्बर-सम्प्रदायमें भी पाया जाता है, जैसा कि सेनगरकी पदावलीके निम्न वाक्यसे प्रकट है : “(स्वस्ति) श्रीमदुज्जयिनीमहाकाल-संस्थापन महाकाललिंगमहीधरवाग्वनदण्डविष्ट्याविष्कृत-श्रीपार्श्वतीर्थेश्वर-प्रतिद्वन्द-श्रीसिद्धसेनभट्टारकाणाम् // 14 // " ऐसी स्थितिमें द्वात्रिशिकानोंके कर्ता सिद्धसेनके विषयमें भी सहज अथवा निश्चितरूपसे यह नहीं कहा जा सकता कि वे एकान्तत: श्वेताम्बर-सम्प्रदायके थे, सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेनकी तो बात ही जुदी है / परन्तु सन्मतिकी प्रस्तावनामें पं० मुखलालजी और पण्डित बैचरदासजीने उन्हें एकान्तत: श्वे.