________________ " : स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द धर्मभूषणका सवन देते अथवा इनसे किसी किसीका उल्लेख मात्र करते हुए फिर उन्हीं वादिविद्यानन्दका शिष्य-प्रशिष्यादि-सहित वर्णन भोर स्तवन दिया है. जिनका पहले कनडीमागर्मे तया संस्कृतभागके पहले पक्ष में उल्लेख है-उन्हें ही 'बुधेशमवन-व्याख्यान' का कर्ता लिखा है-और अन्तमें निम्न पद्य-द्वारा इस सब कपनको 'गुरुभननि' का वर्णन सूचित किया है- वर्द्धमानमुनीन्द्रेण विद्यानन्दायबन्धुना। . देवेन्द्रकीर्तिमहिता लिखिता गुरुमन्ततिः // शिलालेखके इस परिचयमे पाठक सहजमें ही यह समझ सकते हैं कि 'पात्रकेसरी' विद्यानन्दस्वामीका कोई नामान्तर नहीं है, वे गुरुमंन्ततिमें एक पृयक ही प्राचार्य हर है-दोनों विद्यानन्दोंके मध्यमें उनका नाम कितने ही प्राचार्यो अन्तरसे दिया हुप्रा है और इसलिए इस शिलालेखके प्राधारपर प्रेमीजीका उन्हें तथा विद्यानन्दस्वामीको एक ही व्यक्ति प्रतिपादन करना भ्रममात्र है --- उन्हें जरूर इस विषयमें दूमोंके अपरीक्षित कथन पर विश्वास कर नेनेके कारण धोखा हुपा है। प्रब रहे दो प्रमागा, पहला और चौथा। चौया प्रमाण विक्रमकी १७वीं शताब्दी (मं० 1648) में बने हुए एक नाटक-ग्रंथ के कल्पित पात्रोंकी बातचीन पर माधार रखता है. जिसे मब पोरमे मामंजस्यकी जांच किये बिना कोई बाम ऐतिहामिक महत्व नहीं दिया जा सकता। नाटकों तया उपन्यासोंमें प्रयोजनादिवा कितनी ही बातें इधरकी उधर हो जाती है. उनका प्रधान ला इतिहास नहीं होता किन्तु किमी बहानेग-कितनी ही कल्पना करके--- किपी विषयको प्रतिपादन करना या उसे दमगेंके गले उतारना होता है। मोर इसलिए उनकी निहासिकता पर महमा कोई विश्वास नहीं किया जा सकता / उनके पात्रों अथवा पात्रनामों को ऐतिहासिकता तो कभी कभी बहुत दूर की बात हो जाती है. बहतमे नाम तो उनमें यों ही कल्पित किये हए (फ़र्जी) होते है- कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं होते-पोर कितने ही उयक्तियों का काम उनके प्रमनी नामोंमे प्रकट न करके कल्पित नामोंसे ही प्रकट किया जाता है / इम जानमूर्योदय नाटकका भी ऐसा ही हाल है। इसमें 'महशती' के मुख से जो वाक्य कहलाये गए है उनमें नित्यादि परपक्षों के