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________________ 644 , जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश शुद्ध श्रावणभाककृतान्तधरणीतुम्मैत्रमेषे रवौ। कर्कस्थे सगुरो जिनस्मरणतो वादीन्द्रवृन्दार्चिती विद्यानन्दमुनीश्वरः स गतवान् स्वर्ग चिदानन्दकः // ऐसी हालतमें यह स्पष्ट है कि एक विद्वानकी कीतियोंको दूसरे विद्वान्के साथ जोड़ देने में प्रेमीजी मादिको भारी भ्रम तथा धोखा हुआ है और उन्हें अब उसे मालूम करके तथा यह देखकर कि ग़लतीका बहुत कुछ प्रचार हो गया है पर उसके लिये खेद होगा। प्रस्तु; अब शिलालेखके संस्कृत भागको लीजिये, जिसका प्रारम्भ निम्न पद्योंसे होता है वीरश्रीवरदेवराजकृत्सत्कल्याणपूजोत्सयो विद्यानंदमहोदयकानलयः श्रीसंगिराजार्चितः / पद्मानन्दन-कृष्णदेव-वनुतः श्रीवर्द्धमानो जिनः पायात्सालुव-कृष्णदेवनृपति श्रीशोऽर्द्धनारीश्वरः।। श्रीमत्परमगंभीरस्यावादामोघलांछनम् / जोयात् त्रलोक्यनाथस्म शासन जिनशासनम् // इन पचोंके बाद क्रमश: बर्द्धमानजिन, भद्रबाहु, उमास्वाति, सिद्धान्तकीति, भकलंक, श्लोकवातिक प्रादि ग्रन्थों के कर्ता विद्यानन्दस्वामी, मारिणक्यनन्दी. प्रमाचन्द्र,पूज्यपाद, होम्सलराजगुरु वर्द्धमान,वामपूज्य और श्रीपाल नामक गुरुपो. का स्तवन करते हुए 'पात्रकेसरी' का स्तोत्र निम्न प्रकारसे दिया है. - भूभृत्पादानुवर्ती सन् राजसंवापराड मुखः / संयतोऽपि च मोक्षार्थी भात्यसो पात्रमरी / / [ इससे मालूम होता है कि 'पात्रकेसरी' पहले किसी राजाको सेवामें थे मौर उस गजसेवासे पराङ्मुख होकर-उमे छोड कर-ही वे मोक्षार्थी मनि बने है और उन्होंने भूभृत्पाद, नुवर्ती होना--सपस्याके लिये गिरिचरणको शरण में रहना-ही उत्तम समझा है, और इसीसे प्राप सुशोभित हुए है।] ___ इस स्तोत्रके बाद चामुण्डराय-द्वारा पूजित नेमिचन्द्र, माघवचन्द्र, जयकीति, बिनचन्द्र, इंद्रनन्दी, बसन्तकीति, विमालकीति, सुभकीति, पचनन्दी, माषनन्दी, सिंहनन्दी, चन्द्रप्रम, वसुनन्दी, मेषचन्द्र, बीरनन्दी, धनंजय.वादिराज पोर
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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