________________ स्वामी पात्रकेसरी और विधानंद पर उनके द्वारा कोई कोई महत्वका कार्य हुमा है। यह भाग १७पद्योंमें है। ऊपर जो अनुवाद दिया है उसमें 'जैनशासन से प्रारम्भ होनेवाले अन्तिम पांच वाक्योंको छोड़कर शेष भाग इसी कनडी भागसे सम्बन्ध रखता है और उसमें पहले तीन पड़ों तथा पांचवें, पाठवें और दसवें पद्यका कोई अनुवाद नहीं है, जिससे अन्य वृत्तान्तके अतिरिक्त श्रीरंगनगरको गजसमा, गुरु नृपालको राजसमा मोरें नगरी राज्यकी राजसमाका भी हाल रह गया है और शेष पद्योंका जो अनु वाद या प्राशय दिया गया है वह बहुत कुछ अधूरा ही नहीं किन्तु कहीं कहीं पर ग़लत भी है, जिसका एक उदाहरण गेरसोप्पे-सम्बन्धी पद्यका अनुवाद है। इस पद्यमें कहा गया है कि 'हे विद्यानन्द, मापने मेरमोप्पेमें योगागम-विषयक वादमें प्रवृत्त मुनिगणकी पालना-अथवा सहायता के कार्यको प्रेमके साथ, बतौर एक गुरुके अपने हाथ में लिया है और (इस तरह) अपनेको प्रतिष्ठित किया है। इस परमे पाठक यह महजमें ही अनुभव कर सकते है कि ऊपरका 'गेरसोप्पा'से प्रारम्भ होने वाला अनुवाद कितना गलत पोर भ्रामक है / प्रस्तु; शिलालेखके इस कनडीभागमें जिन राजानोंका उल्लेख है और संस्कृतभागमें भी संगिराज, पद्यानन्दन कृाग देव. सालुव कृष्णदेव, विरूपाक्षराय, साल्वमल्लिराय, अच्युराय. विद्यानगरीके विजयश्रीकृष्णराय प्रादि जिन राजापोंका विचार नम्द सया उनके शिष्यों के सम्बन्धमें उल्लेख है वे मब शककी 15 वी अथवा. विक्रम और ईमाको प्राय: 16 वी शताब्दी में हुए है और इमलिये उनकी सभामों; में प्रसिद्ध होनेवाले ये वादिविद्यानन्द महोदय वे विद्यानन्दस्वामी नहीं है जो श्लोकवानिकादि अन्योंके प्रसिद्ध रचयिता है। और यह बात इस शिलालेखके लेखक तथा विद्यानन्दक प्रशिष्य प्रौर बन्धु मुनिवदमान-द्वारा रचित 'दश भक्त्यादिशास्त्र' में भी पाई जाती है, जिसमे इन सब पद्योंका ही नहीं किन्तु संस्कृत भागके भी बहुतमे पोंका उल्लेख करते हुए विद्यानन्दका मृत्युका समय शक सं० 1463 दिया है / यथा शाके यनिहम्परा(रमा)विधचंद्रकालते मंवत्मरे शारे यह अन्य पाराके जैनसिद्धान्तभवन से देखनेको मिला, जिसके लिये अध्यक्ष महाशय विमेष धन्यवाद के पात्र है। "