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________________ 642 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सलूवदेव राजाकी सभामें परवादियोंके मतोंको असत्य सिद्ध करके जैनमतकी प्रभावना की। .......बिलगीके राजा नरसिंहको सभामें जनमतका प्रभाव प्रकट किया। कारकल नगरीके भैरवाचार्यको राजसभामें विद्यानन्दिने जनमतका प्रभाव दिखलाकर उसका प्रसार किया / .........."बिदरीके भव्यजनोंको विद्यानन्दिने अपने धर्मज्ञानसेसम्यक्त्वकी प्राप्ति करा दी......."जिस नरसिंहराजके पुत्र कृष्णराजके दरबारमें हजारों राजा नम्र होते थे उस राजदरबारमें जाकर हे विद्यानन्द, तुमने जैनमतका उद्योत किया और परवादियोंका पराभव किया। ....... कोप्पन तण अन्य तीर्थस्थलोंमें विपुल धन खर्च कराके तुमने धर्मप्रभावना की / बेलगुलके जनसंघको सुवर्णवस्त्रादि दिलाकर मण्डित किया / "..." गेरसोपाके समीपके प्रदेशके मुनिसंघको अपना शिष्य बनाकर उसे विभूषित किया / जनशासनका तथा महावीर, गौतम, भद्रबाहु, विशाखाचार्य, उमास्वामी, समन्तभद्र, अकलंकका विजय हो / प्रकललंकने समन्तभद्रके देवागम पर भाष्य लिखा। प्रम्समीमांसा ग्रंथको समझाकर बतलानेवाले विद्यानन्दिको नमोस्तु / श्लोकवातिकालकारके कर्ता, कविचडामणि, ताकिसिंह. विद्वान् यति विद्यानन्द जयवन्त हों। ..."गिरिनिकट निवास करनेवाले मोक्षन्छु ध्यानी मुनि पात्रकेसरी ही हो गये........" (शिलालेख नं०४६ ) अनुवादरूपमें प्रस्तुत इम शिलालेखके अन्तिम वाक्यमे भी, यद्यपि, यह नहीं पाया जाता कि विद्यानन्द मोर पात्रकेमरी दोनों एक ही व्यक्ति थे क्योंकि न तो इसमें ऐमा लिखा है और न और सब कथन प्रकले विद्यानन्दसे ही मबन्ध रखता है बल्कि गौतम, भद्रबाहू, समन्तभद्र पोर पकनकादिक प्राचार्योका भी इसमें उल्लेख है और तदनुसार पात्रकेसरीका भी एक उल्लेख है / गौतम, भद्रबाहु और समन्तभद्रादिक यदि विद्यानन्दके नामान्तर नहीं है तो पात्रकेसरीको ही उनका नामान्तर क्यों समझा जाय? फिर भी मै इस लेख-विषयको कुछ और भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। यह गिलालेख कनडी और सस्कृत भाषाका एक बहुत बड़ा शिलालेख है-उक्त अनुवादरूपम पाठक जितना देख रहे है उतना ही नहीं है। इसका पूर्वभाग कनडी और उत्तरमाग संस्कृत है पौर यह संस्कृतभाग ही इसमें बड़ा है। पहले कमड़ी भागमें वादिविद्यानन्दका उल्लेख है और मन राजसमापों प्रादिका उल्लेख है जहाँ
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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