________________ 562 / जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश को "त्वंयि सुप्रसन्नमनस: स्थिता वयम्" इस वाक्यके द्वारा स्वयं व्यक्त करते है, जो कि "त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिता:' इस वाक्यका स्पष्ट मूलाधार जान पड़ता है: बहिरन्तरप्युभयथा च, करणमविघाति नाऽर्थकृत् / नाथ ! युगपदखिलं च सदा, त्वमिदं तलाऽऽमलकवद्विवेदिथ / / 126 अत एव ते बुध-नुतस्य, चरित-गुणमद्भ तोदयम् / न्यायविहितमवधाये जिने त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता वयम् / / 130 इन्हीं स्वामी समन्तभद्रको मुख्यत: लक्ष्य करके उक्त द्वात्रिशिकाके अगले दो पद्य * कहे गये जान पड़ते हैं, जिनमेसे एकमें उनके द्वारा अन्तिमें प्रतिपादित उन दो दो बातोंका उल्लेख है जो सर्वज्ञ-विनिश्चियकी सूचक है और दूसरेमें उनके प्रथित यशकी मात्राका बडे गौरवके साथ कीर्तन किया गया है / अत: इस द्वात्रिंशिकाके कर्ता सिद्ध मेन भी ममन्तभद्रके उत्तरवर्ती हैं / समन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्रका शैलीगत, शब्दगत और अर्थगत कितना ही साम्य भी इसमें पाया जाता है, जिसे अनुमरण कह सकते है और जिसके कारगा इम द्वात्रिशिकाको पढ़ते हुए कितनी ही बार इसके पदविन्यामादिपरमे ऐसा भान होता है मानों हम स्वयम्भूस्तोत्र पढ़ रहे हैं / उदाहरण के तौरपर स्वयम्भूस्तोत्रका प्रारम्भ जैसे उपजातिछन्दमें 'स्वयम्भुवा भूत' शब्दोसे होता है वैसे ही इस द्वात्रिज्ञिकाका प्रारम्भ भी उपजाति छन्दमे 'स्वयम्भुवं भूत' शब्दोंसे होता है / स्वयम्भूस्तोत्रमें जिस प्रकार समन्त, संहत, गत, उदित, ममीक्ष्य,प्रवादिन, अनन्त, अनेकान्त-जैसे कुछ विशेष शब्दोंका: मुने, नाथ, जिन, वीर-जैसे सम्बोधन-पदोंका और 1 जितक्षुल्लकवादिशासनः, 2 स्वपक्षसोस्थित्यमदावलिप्ता:, 3 नैतत्समालीढपदं त्वदन्यः, 4 शेरते प्रजाः, 5 प्रशेपमाहात्म्यमनीरयन्नपि, 6 नाऽसमीक्ष भवत: प्रवृत्त यः, 7 अचिन्त्यमीहितम्, पार्हन्त्यमचिन्त्यमद् तं 8 सहस्राक्षः, 6 स्वद्विषः, १०शशि ॐ "वपु: स्वभावस्यमरक्तशोणितं पराऽनुकम्पा सकनं च भाषितम् / न यस्य सर्वज्ञ-विनिश्चयस्त्वयि द्वयं करोत्येतदसौ न मानुषः // 14 // अलब्धनिष्ठाः प्रसमिद्धचेतसस्तव प्रशिष्या: प्रथयन्ति यद्यशः / न तावदप्येकसमूहसंहताः प्रकाशयेयुः परवादिपार्थिवाः // 15 //