________________ - सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन. . . रुचिशुचिशुक्ललोहित वपुः, 11 स्थितावयं जैसे विशिष्ट पदवाक्योंका प्रयोग पाया जाता है उसी प्रकार पहली द्वात्रिशिकामें भी उक्त शब्दों तथा सम्बोधन पदोंके साथ 1 प्रपञ्चितक्षुल्लकतर्कशासन:, 2 स्वपक्ष एव प्रतिबद्धमत्सरा:, 3 परैरनालीढपथस्त्वयोदित:, 4 जगत् " शेरते, ५त्वदीयमाहात्म्यविशेषसंभली... भारती, 6 समीक्ष्यकारिणः, 7 अचिन्त्यमाहात्म्यं, 8 भूतसहस्रनेत्रं, ह त्वत्प्रतिघातनोन्मुखैः, 10 वपुः स्वभावस्थमरक्तशोणितं, 11 स्थिताबयं जैसे विशिष्ट पद-वाक्योंका प्रयोग देखा जाता है, जो यथाक्रम स्वयम्भूस्तोत्रगत उक्त पदोंके प्रायः समकक्ष है / स्वयम्भूस्तोत्रमें जिम तरह जिनस्तवनके साथ जिनशासनजिनप्रवचन तथा अनेकान्त का प्रगमन एव मह व ख्यापन किया गया है और वीरजिनेन्द्र के गायनमाहात्म्यको 'तव जिनशासनविभव: जर्यात कलावपि गुरणानुशासनविभव:' जैन शब्दों-द्वारा कलिकाल में भी जयवन्त बतलाया गया है उसो तरह इस द्वात्रिशिकामें भी जिनस्तुतिके साथ जिनशासनादिका संक्षेपमें कीर्तन किया गया है और वीर भगवानको ‘मच्छासनवर्द्धमान' लिखा है। इस प्रथम द्वात्रिशिकाके कर्ता सिद्ध मेन ही यदि अगली चार द्वात्रिशिकानोंके भी कर्ता है, जैसाकि पं . सुखलालजीका अनुमान है, तो पांचों ही द्वात्रिशिकाएं, जो वीरस्तुनिसे सम्बन्ध रखती हैं और जिन्हें मुख्यतया लक्ष्य करके ही प्राचार्य हेमचन्द्रने 'क्व मिद्धसेनस्तुतयो महार्थाः' जैसे वाक्यका उच्चारण किया जान पड़ता है, स्वामी समन्तभद्रके उत्तरकालीन रचनाग है। इन सभीपर समन्तभद्र के ग्रन्योंकी छाया पड़ी हुई जान पड़ती है। इस तरह स्वामी ममन्तभद्र न्यायावतारके कर्ता, सन्मतिके कर्ता और उक्त हात्रिशिका अथवा द्वात्रिशिका प्रोंके कर्ता तीनों ही मिद्धसेनोंसे पूर्ववर्ती सिद्ध होते है। उनका समय विक्रमकी दूसरी तीसरी शताब्दी है, जैसा कि दिगम्बर पट्टावली 8 में शकसंवत् 60 (वि० सं० 165) के उल्लेखानुसार दिगम्बर-समाजमें आमतौरपर माना जाता है / श्वेताम्बर पट्टावलियों में उन्हें सामन्तभद्र' नाम * देखो, हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थोंके अनुसन्धान-विषयक डा० भाण्डरकरको सन् 1883-84 की रिपोर्ट पृ० 320; मिस्टर लेविस राइसकी 'इस्क्रिपशन्स ऐट् श्रवणबेल्गोलको प्रस्तावना प्रौर कर्णाटक शब्दानुशासनको भूमिका /