________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 561 बादको एक दूसरे चतुष्टयकी और वृद्धि की है, जिसका पहलेमे पूर्वके चतुष्टयमें ही अन्तर्भाव था। ___ रही द्वात्रिशिकानोंक कर्ता सिद्धमेनको बात, पहली द्वात्रिशिकामें एक उल्लेख-वाक्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है, जो इस विषयमे अपना खास महत्त्व रखता है: य एष पड्जीव-निकाय-विस्तरः परेरनालीढपथस्त्वयादितः / अनेन सर्वज्ञ-परीक्षण क्षमास्त्वयि प्रसादादयसोत्सवाः स्थिताः // 13 इसमें बतलाया है कि 'हे वीरजिन ! यह जो षट् प्रकारके जीवोंके निकायों ( समूहों ) का विस्तार है और जिसका मागं दूमरोंके अनुभवमें नहीं आया वह प्रापके द्वारा रदित हुप्रा-बतलाया गया अथवा प्रकाशमे लाया गया है। इसीमे जो सर्वज्ञकी परीक्षा करने में समर्थ हैं वे (पापको सर्वज्ञ जानकर ) प्रसन्नताके उदयरूप उत्सवके साथ आपमें स्थित हुए है-बड़े प्रसन्नचितसे आपके प्राश्रयमें प्राप्त हुए और प्रापके भक्त बने है।' वे समर्थ-सर्वज-परीक्षक कोन है जिनका यहाँ उल्लेख है और जो प्राप्तप्रभु वीरजिनेन्द्र की सर्वज्ञरूपमें परीक्षा करनेके अनन्तर उनके सुदृढ भक्त बने है? वे हे स्वामी ममन्तभद्र. जिन्होंने प्राप्तमीमांसाद्वारा सबस पहले सवज्ञकी परीक्षा * की है, जो परीक्षाके अनन्तर वीरकी स्तुतिरूपमे युक्त्यनुशासन' स्तोत्रक रचनेमे प्रवृत्त हुए है / और जो स्वयम्भू स्तोत्रके निम्न पद्योंमे सर्वज्ञका उल्लेख करते हुए उसमें अपनी स्थिति एवं भक्ति प्रकलदेवने भी प्रशती' भाष्य में प्राप्तमीमांसाको "सर्वज्ञविशेषपरीक्षा'' लिखा है और वाहिगजमूरिने पाश्वनाथचरितमें यह प्रतिपादित किया है कि 'उसी देवागम ( प्राप्तमीमासा ) के द्वारा स्वामी ( समन्तभद्र ) ने आज भी सर्वशको प्रदर्शित कर रखा है: "स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य न विस्मयावहम् / देवागमेन सर्वजो येनाऽद्यापि प्रदश्यते // " + युक्त घनुशासनको प्रथमका रिकामें प्रयुक्त हुए 'पद्य' पदका अर्थ श्रीविद्यानन्दने टीकाम "पस्मिन् काले परीक्षाऽवसानसभरे" दिया है और उसके द्वारा माप्तमीमांसाके बाद युक्त्यनुशासनको रचनाको सूचित किया है /