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जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
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देना नहीं चाहता ।
ब्रह्म नेमिदत्त + के 'आराधना- कथाकोश' में भी 'शिवकोटि' राजाका उल्लेख है— उसीके शिवालय में शिवनैवेद्यसे 'भस्मक' व्याधिकी शांति और चन्द्रप्रभ जिनेन्द्रकी स्तुति पढ़ते समय जिनबिम्बकी प्रादुर्भूतिका उल्लेख है । साथ ही, यह भी उल्लेख है कि शिवकोटि महाराजने जिनदीक्षा धारण की थी । परन्तु शिवकोटिको, 'कांची' अथवा 'नवतैलंग' देशका राजा न लिखकर 'वाराणसी' (काशी - बनारस) का राजा प्रकट किया है, यह भेद है . ।
अब देखना चाहिये, इतिहास से 'शिवकोटि' कहाँका राजा सिद्ध होता है । जहाँ तक मैंने भारत के प्राचीन इतिहासका, जो अब तक संकलित हुग्रा है, परिशीलन किया है वह इस विषय में मौन मालूम होता है— शिवकोटि नामके राजाकी उससे कोई उपलब्धि नही होती - बनारसके तत्कालीन राजानोंका तो उससे प्रायः कुछ भी पता नहीं चलता । इतिहासकालके प्रारम्भ में ही ईसवी सन्से करीब ६०० वर्ष पहले - बनारस या काशीकी छोटी रियासत ' कोशल' राज्यमें मिला ली गई थी, और प्रकट रूपमें अपनी स्वाधीनताको खो चुकी थी। इसके बाद, ईसामे पहलेकी चौथी शताब्दीमें, प्रजातशत्रुके द्वारा वह 'कोशल' राज्य भी 'मगध' राज्यमे शामिल कर लिया गया था, और उस वक्तसे उसका एक स्वतन्त्र राज्यसत्ताके तौरपर कोई उल्लेख नहीं मिलता ।
+ ब्रह्म नेमिदत्त भट्टारक मल्लिभूषरण के शिष्य और विक्रमकी १६वीं शताब्दीके विद्वान् थे । आपने वि० मं० १५८५ में श्रीपालचरित्र बनाकर समाप्त किया है । श्राराधना कथाकोश भी उसी वक्नके करीबका बना हुआ है ।
+ यथा --- वाराणसी ततः प्राप्तः कुलघोपैः समन्विताम् । योगिलिंग तथा तत्र गृहीत्वा पर्यटन्पुरे ॥ १६ ॥
स योगी लीलया तत्र शिवकोटिमहीभुजा । कारितं शिवदेवोरुप्रासादं संविलोक्य च ॥ २०॥
* V. A. Smith's Early History of India, III Edition, p. 30-35. (विन्सेंट ए० स्मिथ साहबकी अर्ली हिस्टरी प्राफ़ इन्डिया, तृतीयसंस्करण, पृ० ३०-३५ ।)