________________
समन्तभद्रका मुनिजीवन और श्रापत्काल
२२७
में पाये जाते हैं । इसमें बुद्धिवृद्धिके लिये जिस 'यतिपति' को नमस्कार किया गया है उससे एक अर्थ में 'श्रीवर्द्धमानस्वामी' और दूसरे में 'समंतभद्रस्वामी' का अभिप्राय जान पड़ता है । यतिपतिके जितने विशेषता है वे भी दोनोंपर ठीक घटित होजाते हैं । 'अकलंक - भावकी व्यवस्था करनेवाली सन्नीति (स्याद्वादनीति ) के सत्पथको संस्कारित करनेवाले' ऐसा जो विशेषण है वह समन्तभद्रके लिये agreinदेव प्रौर श्रीविद्यानंद जैसे प्राचार्यों द्वारा प्रयुक्त विशेषणोंमे मिलताजुलता है। इस पद्यके अनन्तर ही दूसरे 'लक्ष्मीभृत्परमं' नामके पद्यमें, समन्तभद्रके मत ( शासन) को नमस्कार किया गया है । मनको नमस्कार करनेसे पहले खास समन्तभद्रको नमस्कार किया जाना ज्यादा संभवनीय तथा उचित मालूम होता है । इसके सिवाय इस वृत्तिके अन्तमें जो मंगलपद्य दिया है वह भी चर्थक है और उसमें साफ़ तौरसे परमार्थविकल्पी 'समंतभद्रदेव' को नमस्कार किया है। और दूसरे अर्थ में वही 'समंतभद्रदेव' परमात्माका विशेषण किया गया है। यथासमन्तभद्रदेवाय परमार्थविकल्पिने । समन्तभद्रदेवाय नमोस्तु परमात्मने ||
इन सब बातों यह बात और भी दृढ हो जाती है कि उक्त 'यतिपति से समन्तभद्र खास तौर पर अभिप्रेत हैं । ग्रस्तु उक्त यतिपतिके विशेषणोंमें 'भेत्तारं वसुलभावतमसः ' भी एक विशेषण है, जिसका अर्थ होता है वालके भावiधकारको दूर करनेवाले' | 'वसुपाल' शब्द सामान्य तौर से 'राजा' का वाचक है और इसलिये उक्त विशेषगणसे यह मालूम होता है कि समन्तभद्रस्वामीने भी किसी राजाके भावाधकारको दूर किया है। बहुत सभव है कि वह राजा 'शिवकोटि' ही हो और वही समन्तभद्रका प्रधान शिष्य हुआ हो। इसके सिवाय 'a' शब्दका अर्थ 'शिव' और 'पाल' का अर्थ 'राजा' भी होना है और इस तरह पर 'वसुपाल' से शिवकोटि राजाका अर्थ निकाला जा सकता है, परन्तु यह कल्पना बहुत ही क्लिष्ट जान पड़ती है और इसलिये में इस पर अधिक जोर गुरु नेमिचंद्रा भी गय लिया जा सकता है, जो वसुनन्दि-श्रावकाचारकी 'प्रशस्तिके अनुसार नयनन्दीके शिष्य और श्रीनन्दीके प्रशिष्य थे ।
& श्रीवर्द्धमानस्वामीने राजा श्रेणिकके भावान्धकारको दूर किया था ।