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________________ 32 आर्य और म्लेच्छ श्रीगृद्धपिच्छाचार्य उमास्वातिने, अपने तत्त्वार्थाधिगममूत्र ग्रन्थमें, सब मनु-गोंको दो भागोंमें बांटा है-एक 'मार्य' और दूसरा 'म्लेच्छ'; जैसा कि उनके निम्न दो सूत्रोंसे प्रकट है:"प्राड मानुषोत्तरान्मनुष्याः / " "आर्या म्लेच्छाश्च / 103 / / परन्तु 'पाय' किसे कहते हैं और 'म्लेच्छ' किसे ?-दोनोंका पथक पपक क्या लक्षण है ? ऐसा कुछ भी नहीं बतलाया / मूलमूत्र इस विषयमें मौन है। हाँ, श्वेताम्बरोंके यहाँ तत्त्वार्थमूत्र पर एक भाप्य है,जिसे स्वोपडभाष्य कहा जाता है-अर्थात् स्वयं उमास्वातिकृत बतलाया जाता है। यद्यपि उस भाष्यका म्बोपसमाष्य होना अभी बहुत कुछ विवादापन है, फिर भी यदि थोड़ी देरके लिएविषयको पागे सरकानेके वास्ते-यह मान लिया जाय कि वह उमास्वाति-कृत ही है, तब देखना चाहिये कि उसमें भी 'पाय' और 'म्लेच्छ का कोई स्पष्ट लक्षण दिया है या कि नही / देखनसे मालूम होता है कि दोनोंको पूरी और ठीक पहचान बतलानेवाला वैसा कोई लभण उसमें भी नहीं है, मात्र भेदपरक कुछ स्वरूप जरूर दिया हमा है पोर वह सब इस प्रकार है:___ "द्विविधा मनुष्या भवन्ति / भार्या म्लिशश्च / तत्रार्या षड्विधाः क्षेत्राय:जात्यार्या कुलार्या:शिल्पार्याः कर्माया:भापार्या इति / तत्र क्षेत्रार्याः श्वेताम्बरोंके यहाँ 'म्लेच्छाश्च' के स्थानपर 'लिशदव' पाठ भी उपलब होता है, जिससे कोई अर्थ भेद नहीं होता।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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