________________
५४
जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
पंचय मासा पंच य वासा छच्चेव होंति वाससया । परिणिस्सऽरिहतो तो उपप्रणो सगो राया ॥ ६२३ ॥
यहाँ शकराजका जो उत्पन्न होना कहा है उसका अभिप्राय शककालके उत्पन्न होने अर्थात् शकस वत्के प्रवृत्त ( प्रारम्भ ) होनेका है, जिसका समर्थन 'विचारश्रेणि' में श्वेताम्बराचार्य श्री मेरुतुरंग द्वारा उद्धृत निम्न वाक्यसे भी होता हैश्रीवीरनिवृतेर्वर्षैः षभिः पंचोत्तरैः शतैः । शाकसंवत्सरस्यैषा प्रवृत्तिर्भरतेऽभवत् ॥
1
इस तरह महावीरके इस निर्वारण-समय- सम्बन्ध में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंकी एक वाक्यता पाई जाती है । और इसलिये शास्त्रीजीका दिगम्बर समाजके संशोधक विद्वानों तथा सभी पत्र - सम्पादकोंपर यह श्रारोप लगाना कि उन्होंने इस विषय में मात्र श्वेताम्बर सम्प्रदायका ही अनुसरण किया है उसीकी मान्यतानुसार वीरनिर्वाण सवत्का उल्लेख किया है-- बिल्कुल ही निराधार तथा अविचारित है ।
ऊपर के उद्धृत वाक्योंमें 'शककाल' और 'शाकसंवत्सर' जैसे शब्दोंका प्रयोग इस बातको भी स्पष्ट बतला रहा है कि उनका अभिप्राय 'विक्रमकाल' अथवा 'विक्रमसंवत्सर' मे नही है, और इसलिये 'शकराजा' का अर्थ विक्रमराजा नही लिया जा सकता । विक्रमराजा वीरनिर्वाण मे ४७० वर्ष बाद हुआ है जैसा कि दिगम्बर नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावलीकं निम्न वाक्यमे प्रकट है-
सत्तरचदुमद जुत्ता जिरणकाला विक्कमो हवइ जम्मो छ ।
इसमें भी विक्रमजन्मका अभिप्राय विक्रमकाल अथवा विक्रमसंवत्सर की उत्पत्तिका है । श्वेताम्बरोंके 'विचारश्रेणि' ग्रन्थमे भी इसी श्राशयका वाक्य निम्न प्रकार मे पाया जाता है
6
विकमरज्जारंभापुर सिरिवीरनिव्वुई भणिया ।
यह वाक्य 'विक्रमप्रबन्ध' में भी पाया गया है । इसमें स्थूल रूपमेमहीनों की संख्याको साथमें न लेते हुए वर्षोंकी संख्याका ही उल्लेख किया है; जैसाकि 'विचारश्रेरणी' में उक्त 'श्रीवीरनिर्वृतेर्वर्ष:' वाक्यमें शककालके वर्षोंका ही उल्लेख है ।
न