________________ जनसाहित्य और इतिहास र विशा प्रकाश दव्यं पज्जव-विज्यं व्व- विमा य पज्जवा स्थि। उप्पाय-दिइ-मंगा हंदि दवियलक्खणं एयं // 12 // ए पुण मंगहनो पाडिकमल स्वर्ण दुवेण्हं पि / तम्हा मिच्छादिट्ठी पत्तेयं दो वि मृल-गया // 13 // गग य तइया अस्थि रण श्री ण य सम्मनं ग नेम पडिपुगगां / जेण दवे एगना विभाजमारणा प्रणेगंतो / / 14 / / इन गाथामोके अनन्तर उत्तर नयों की चर्चा करते हुए और उन्हें भी मूलनयोंके समान दुन्य नथा मुनय प्रनिगदन करते हा पोर यह बतलाते हए कि किमी भी नयका एकमात्र पक्ष लेनेपर मंमार, मुम्ब, दाम्य, बन्ध और मोक्षको कोई व्यवस्था नहीं बन सकती, मभी नयों के पिया नया मापक रूपको स्पष्ट करते हुए लिखा है तम्हा मध्य वि या मिच्छादिदी मपक्वपडियद्धा। अण्ण परिणम्मिश्रा उग्ण यति सम्मत्तममाया | 'प्रतः सभी नय-नाह वे मूल, उना या उनगेना कोई भी नय को न हों-जो एकमात्र प्राने ही पक्षके साथ प्रतिबद्ध है वे मियाह है--वनको यथार्थ रूपमे देखन-प्रतिगादन करने में प्रममय है। परल जो नय परम्पग्में अपेक्षाको लिय हुए प्रबनने हैं वे सब गम्यष्टि है-वनको यथायंकामे देखनेप्रतिपादन करने में ममर्थ है। ___ तीसरे काण्डमें, नयबादकी चर्चाको एक दूसरे ही नंगमे उठाने हा नयवादके परिशुद्ध पौर प्रारमुख ऐमे दो भेद मुचित किये हैं, जिनमें परिशुद्ध नयवादको प्रागममात्र प्रथंका-केवल श्रमप्रमाग विषयका-माधक बनलाया है. प्रोर यह ठीक ही है, क्योंकि परिशुद्धनगरमापेक्षनय बाद होने अपने पक्षकाअंशोंका-प्रतिपादन करता हा परपक्षका-दुमा प्रशोंका --निगकरण नही करता और इसलिये दूसरे नयवादके माप विरोध न रखने के कारण पन्तको श्रुनप्रमाणके समय विषयका ही माधक बनता है और अपरिगुट नयवादको ‘दुनिक्षिप्त' विशेषण के द्वारा उल्लेखित करते हुए स्वाक्ष तथा परपक्ष दोनों का विधानक लिखा है और यह भी ठीक ही है क्योंकि वह निरपेभनयवाद होनेमे एकमात्र