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________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 506 अपने ही पक्षका प्रतिपादन करता हुमा अपने मे भिन्न पक्षका मवंथा निगकरण करता है-विरोधवृत्ति होनस उसके द्वारा शुनप्रमाण का कोई भी विषय नहीं सघता मोर इस तरह वह अपना भी निगकरण कर बैठना है। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि वस्तुका पूर्णरूप अनेक मापेक्ष अंगो-धममि निर्मित है, ओ परस्पर प्रविनाभाव-मम्बन्धको लिये हुए है, एकके अभावमे दुमका अस्तित्व नहीं बनना, और इमलिये जा नयवाद परपक्षका मर्वया निषेध करता है वह माना भी निषधक होता है-परके प्रभाव में प्रपने म्वम्पको किसी तरह भी मिट करने में समर्थ नहीं हो सका। नयवादके इन भेदों पोर उनके स्वरूपनिदेमके प्रनन्तर बतलाया है. कि 'जितने वचनमागं है उसने ही नयवाद है और जितने ( परिशुद्ध प्रथवा परस्पर निगरोसा विगंधी ) नयाद है उतने ही परममय-जननरदर्शन-हैं / उन दमंगोमें कपिलका मापदर्शन द्रव्यापिकनयका वक्तव्य है। मुद्धोदनके पुत्र बुटका दर्शन परिशुद्ध पर्यापनय का विकला है। उनूक प्रांत कपादन प्राना शास्त्र ( वगेषिक दर्शन ) यद्यपि दोनो नयांक द्वारा प्रापित किया है फिर भी वह मिथ्याता है-प्रमाण है; क्योंकि ये दोनों नयहष्टियां उक्त दर्शनमें अपने अपने विषपको प्रधानता के लिये परम्पर में एक-दूसरे को कोई प्रपंक्षा नहीं रखती। इस विषय में मम्बन्ध रम्बनेवानी गाथा निम्न प्रकार है परिमुद्रा णयवानो भागममेनाथ माधको होइ / मोचव दरिणगिरणी दोरिण विपकव विधम्मेइ / / 46 / / जावाया वयायहा नावइया चेव हाति एयवाया। जायाया गयवाया नावल्या चव परममया // 17 // जे काबिल हरिमां एवं दयट्रियम्म वत्तस्वं। मात्रा-नगान र परिमा पनवविअप्पा ||18|| कोहि विगाहगीय मन्थमुलगा न मिच्छत्तं। जमयिमहामणे प्रगणोगा रिणरवेक्वा / / 46|| इनके पनन्ना निम्न दो गावापो पर प्रतिपादन किया है कि 'मांपोंके बहाद पा र पौरभेषिक जन जो दोष देते हैं तथा बौदों पोर शे
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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