________________ ....... 545 सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन उत्तरार्धके विद्वान् है। प्रकलंकदेवका विक्रम सं० 700 में बोडोंके साथ महान् बाद हुआ है जिसका उल्लेख पिछले एक फुटनोटमें प्रकलंकचरितके प्राधारपर किया जा चुका है, और जिनमद्रक्षमाश्रमणने अपना विशेषावश्यकभाष्य शंक सं०५३१ प्रर्यात वि० सं० 666 में बनाकर समाप्त किया है। ग्रन्थका यह रचनाकाल उन्होंने स्वयं ही ग्रन्यके अन्त में दिया है, जिसका पता श्रीजिनविजयजीको जैसलमेर भण्डारकी एक प्रतिप्राचीन प्रतिको देखते हुए चला है। ऐमी हालनमें सन्मतिकार सिद्ध मेनका ममय विक्रम सं० 666 मे पूर्वका सुनिशिवत है परन्तु वह पूर्वका समय कौन-सा है ?-कहाँ तक उमकी कममे कम सीमा है ?-यही भागे विचारणीय है। (2) सन्मतिसूत्रमें उपयोग-द्वपके क्रमवादका जोरोंके माथ खण्डन किया गया है, यह बात भी पहने बतलाई जा चुकी तथा मूत्र ग्रन्थके कुछ वाक्योंको उद्धृत करके दर्शाई जा चुकी है। उस क्रमवादका पुरस्कर्ता कौन है और उस का ममय क्या है ? यह बात यहां वाम नौरमे जान लेने की है। हरिभद्रमूरिने नन्दिनिमें तथा अभयदेवमूरिने सन्मतिको टीकामें यद्यपि जिनभद्रक्षमाश्रमणको क्रमवादके पुरस्कर्तारूपमें उल्लेखित किया है परन्तु वह ठीक नहीं है; क्योंकि वे तो सन्मतिकारके उत्तरवर्ती है, जब कि होना चाहिए कोई पूर्ववर्ती / यह दूसरी बात है कि उन्होंने क्रमवादका जोरोंके माथ समर्थन और व्यवस्थित रूप से स्थापन किया है, मभवन: इसीसे उनको उस वादका पुरस्कर्ना समझ लिया जान पड़ता है / पन्यथा, क्षमाश्रमगाजी स्त्रयं विशेषणवतीमें अपने निम्न वाक्यों-द्वारा यह सूचित कर रहे हैं कि उनसे पहले युगपद्वाद्, कनवाद तथा अभेदवादके पुरस्कर्ता हो चुके है केई भणंति जुगवं जाणइ पासह य केवलो रिणयमा। अण्णे एगतरियं इमछति सुनोवएसेणं // 184 // अरणे ए चे। वो इंसाणमिच्छति जिणवरिंदस्स। जं वि य केवलणाणं तं चि य से दरिसणं विति // दशा प. मुबलालजी धादिने भी कथन-गिरोधको महसूस करते हुए प्रस्तावनामें यह स्वीकार किया है कि जिनमद और सिडसेनके पहले करवादके पुरस्कर्ता