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स्वामी समन्तभद्र
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समन्तभद्रने बाल्यावस्था से ही अपने आपको जनधर्म और जिनेन्द्रदेवकी सेवाके लिये अर्पण कर दिया था, उनके प्रति प्रापका नैसर्गिक प्रेम था और आपका रोम रोम उन्हीके ध्यान और उन्हीं की वार्ताको लिये हुए था । ऐसी हालत में यह आशा नहीं की जा सकती कि आपने घर छोड़ने में विलम्ब किया होगा ।
भारतमें ऐसा भी एक दस्तूर रहा है कि, पिताकी मृत्युपर राज्यासन सबसे बड़े बेटेको मिलता था, छोटे बेटे तव कुटुम्बको छोड़ देते थे और धार्मिकजीवन व्यतीत करते थे; उन्हें अधिक समयतक अपनी देशीय रियासतमें रहनेकी भी इजाजत नहीं होती थी * । और यह एक चर्या थी जिसे भारतको, खासकर बुद्धकालीन भारतकी, धार्मिक संस्थाने छोटे पुत्रोंके लिये प्रस्तुत किया था, इस कार्यमें पड़ कर योग्य आचार्य कभी कभी अपने राजबन्धुसे भी अधिक प्रसिद्धि प्राप्त करते थे । संभव है कि समंतभद्र को भी ऐसी ही किसी परिस्थितिमेंसे गुजरना पड़ा हो, उनका कोई बड़ा भाई राज्याधिकारी हो, उसे ही पिताकी मृत्यु पर राज्यामन मिला हो, और इस लिये समंतभद्र ने न तो राज्य किया हो और न विवाह ही कराया हो; बल्कि अपनी स्थितिको समझ कर उन्होंने अपने जीवनको शुरू से ही धार्मिक मांचेमें ढाल लिया हो; और पिताकी मृत्यु पर अथवा उससे पहले ही अवसर पाकर आप दीक्षित हो गये हों; और शायद यही वजह हो कि आपका फिर उग्गपुर जाना और वहां रहना प्राय: नही पाया जाता । परंतु कुछ भी हो, इसमे संदेह नही कि आपकी धार्मिक परिणतिमें कृत्रिमताकी जरा भी गंध नही थी । आप स्वभावसे ही धर्मात्मा थे और आपने
* इस दस्तुरका पता एक प्राचीन चीनी लेखकके लेखकमे मिलता है (Matwan-lin, cited in Ind. Ant. IX, 22 ) देखो, विन्मेण्ट ferent off हिस्ट्री आफ इंडिया' पृ० १८५, जिसका एक अंश इस प्रकार है
An ancient Chinese writer assures us that 'according to the laws of India, when a king dies, he is succeeded by his eldest son (Kumararaja); the other sons leave the family and enter a religious life, and they are no longer allowed to reside in their native kingdom.'