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स्वामी समन्तभद्र
श्रीकरी च धीकरी च सर्वसौख्यदायिनीं नागराजपूजितां समन्तभद्रभारतीम् ॥ ८ ॥
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इस 'समन्तभद्रभारतीस्तोत्र' में, स्तुति के साथ, समन्तभद्रके वादों, भाषणों और ग्रंथोंके विषयका यत्किचित् दिग्दर्शन कराया गया है। साथ ही, यह सूचित किया गया है कि समन्तभद्र की भारती प्राचार्योकी मूक्तियोंद्वारा वंदित, मनोहर कीर्ति देदीप्यमान और क्षीरोदधिकं समान उज्ज्वल तथा गम्भीर है; पापोंको हरना, मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्रको दूर करना ही उम वाग्देवीका एक आभूषण और वाग्विलास ही उसका एक वस्त्र है, वह घोर दुःखमागरसे पार करनेके लिये समर्थ है, सर्व सुम्वोंको देनेवाली है और जगतके लिये हितरूप है ।
यह में पहले ही प्रकट कर चुका हूं कि समन्तभद्रकी जो कुछ वचनप्रवृत्ति होती थी वह सब प्राय: दूसरोंके हिनके लिये ही होती थी। यहां भी इस स्तोत्रमे वही बात पाई जाती है, और ऊपर दिये हुए दूसरे कितने ही ग्राचार्योक वाक्योंमे भी उसका पोषण तथा स्पष्टीकरण होता है । अस्तु, इस विषयका यदि और भी अच्छा अनुभव प्राप्त करना हो तो उसके लिये स्वयं समन्तभद्रके ग्रंथोंकी देखना चाहिये । उनक विचारपूर्वक अध्ययनसे वह अनुभव स्वतः हो जायगा । समन्तभद्रके ग्रन्थांका उद्देश्य ही पापको दूर करके - कुदृष्टि, कुबुद्धि, कुनीति और कुबुनिको हटाकर - जगनका हित साधन करना है। समन्तभद्रने अपने इस उद्देश्यको कितने ही ग्रंथी व्यक्त भी किया है, जिसके दो उदाहरण नीचे दिये जाते है
इतीयमानमीमांसा विहिता हितमिच्छतां ।
सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ।। ११४. ।।
यह 'प्राप्नमीमांसा' ग्रन्थका पद्य है। इसमें ग्रथनिर्माणका उद्देश्य प्रकट करते हुए, बतलाया गया है कि यह 'प्राप्तमीमांसा' उन लोगोंको सम्यक् और मिथ्या उपदर्शक प्रर्थविशेषका ज्ञान करानेके लिये निर्दिष्ट की गई है जो अपना
इस स्तोत्र के पूरे हिन्दी अनुवादके लिये देखो, 'सत्साधु- स्मरण - मंगलपाठ जो वीरमेवामन्दिरसे प्रकाशित हुआ है ।