________________ गन्धहस्ती महाभाष्यकी खोज 265 क्यद्वारा श्रीविद्यानंद प्राचार्य ऐसा सूचित करते हैं कि प्राप्तमीमांसा-द्वारा प्राप्तकी परीक्षा हो जानेके अनन्तर यह ग्रंथ रचा गया है, और ग्रंथके प्रथमा पद्य में पाये हुए 'पद्य शब्द परसे भी यह ध्वनि निकलती है कि उससे पहले किसी दूसरे ग्रन्थ अथवा प्रकारणकी रचना हुई है। ऐमी हालतमें, उस ग्रन्थराजको 'गंधहस्ति' कहना कुछ भी अनुचित प्रनीत नहीं होता जिसके 'देवागम' और ' युक्त्यनुशासन' जैसे महामहिमासम्पन्न मौलिक ग्रन्थरत्न भी प्रकरण हों। नहीं मालूम तब, उस महाभाष्यमै ऐसे कितने ग्रन्थरत्नोंका समावेश होगा। उमका लुप्त हो जाना निःसन्देह जनसमाजका बड़ा ही दुर्भाग्य है / रही महाभाष्यके मंगलचरणको बात, इस विषयमें, यद्यपि अभी कोई निचित राय नहीं दी जा सकती, फिर भी मोक्षमार्गस्य नेतारं' नामक पद्यके मंगलाचरण होनकी सभावना जरूर पाई जाती है और साथ ही इस बातकी भी संभावना है कि वह समन्तभद्र-प्रणीत है। परन्तु यह भी हो सकता है कि उक्त पद्य उमास्यानिके तत्वार्थमूत्रका मंगलाचरण हो और ममन्तभद्रने उसे ही महाभाष्यका प्रादिम मगलाचरण स्वीकार किया हो, ऐसी हालतमे उन सब प्राक्षेपों के योग्य ममाधानकी जरूरत रहती है जो इस पद्यको तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण मानने पर किये जाते हैं और जिनका दिग्दर्शन ऊपर कराया जा चुका है। मेरी रायमें,इन सब बातोंको लेकर और सबका अच्छा निर्णय प्राप्त करने के लिये,महाभाष्यके सम्बंध में प्राचीन जैनमाहित्यको टटोलने की अभी और जरूरत जान पड़ती है, और वह जरूरत और भी बढ़ जाती है जब हम देखते है कि ऊपर जितने भी उल्लेख मिले है वे सब विक्रमकी प्राय: ११वों, १२वी, १३वीं, १४वीं,ौर १५वीं युक्त्यनुशासनका प्रथम पद्य इस प्रकार है"कीर्त्या महत्या भुवि वर्द्धमान त्वां वदमानं स्तुतिगोचरत्वं / निनीषवः स्मो वयमद्य वीर विशीर्णदोषाशयपाशबन्ध / " पच प्रस्मिन्काले परीक्षावसानसमये (- इति विद्यानंद:) अर्थात- इस समय-परीक्षाकी समाप्तिके प्रवमरपर-हम मापको-वीरवर्षमानको-अपनी स्तुतिका विषय बनाना चाहते है-मापकी स्तुति करना चाहते है।