________________ 264 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश कहा जा सकता। हाँ, उमास्वातिके 'तत्त्वार्थसूत्र'पर उसके लिखे जानेको अधिक संभावना जरूर है; परन्तु ऐसी हालतमें, वह अष्टशती और राजबातिकके कर्ता प्रकलंकदेवसे पहले ही नष्ट हो गया जान पड़ता है / पिछले लेखकोंके ग्रंथोंमें महाभाष्यके जो कुछ स्पष्ट या अस्पष्ट उल्लेख मिलते हैं वे स्वयं महाभाष्यको देखकर किये हुए उल्लेख मालूम नहीं होते-बल्कि परंपग-कथनोंके माधारपर या उन दूसरे प्राचीन ग्रंथोंके उल्लेखोंपरसे किये हुए जान पड़ते हैं, जो अभी तक उपलब्ध नहीं हुए ! उनमें एक भी ऐसा उल्लेख नहीं है जिसमें 'देवागम' जैसे प्रसिद्ध ग्रन्थके पद्योंको छोड़कर, महाभाष्यके नामके माथ उसके किसी वाक्यको उद्धृत किया हो। इसके सिवाय, 'देवागम' उक्त महाभाष्यका प्रादिम मंगलाचरण है यह बात इन उल्लेखोंसे नहीं पाई जाती / हाँ, वह उसका एक प्रकरण जरूर हो सकता है, परन्तु उसकी रचना 'गंधहस्ति' की रचनाके अवसरपर हुई या वह पहले ही रचा जा चुका था और बादको महाभाष्यमें शामिल किया गया इसका अभी तक कोई निर्णय नहीं हो सका। फिर भी इतना तो स्पष्ट है और इस कहने में कोई आपत्ति मालूम नही होती कि 'देवागम (प्राप्तमीमांसा ) एक बिल्कुल ही स्वन्नत्र ग्रन्थके रूपमें इतना अधिक प्रसिद्ध रहा है कि महाभाष्यको समंतभद्रकी कृति प्रकट करते हुए भी उसके साथमें कभी कभी देवागमका भी नाम एक पृथक् कृतिक रूपमें देना जरूरी समझा गया है और इस तरहपर 'देवागम' की प्रधानता और स्वन्तत्रताको उद्घोषित करनेके माथ साथ यह मूचित किया गया है कि देवागमके परिचयके लिये गंधहस्ति- महाभाष्यका नामोल्लेख पर्याप्त नहीं है-उमके नामपरसे ही देवागमका बोष नहीं होता। माथ ही, यह भी कहा जा सकता है कि यदि 'देवागम' गंधहस्ति-महाभाग्यका एक प्रकरण है तो 'युक्त्यनुशामन' ग्रंथ भी उसके अनन्तरका एक प्रकरण होना चाहिये; क्योंकि 'युक्त्यनुशासनटीकाके प्रथम प्रस्तावनावा टीकाका प्रथम प्रस्तावनावाक्य इस प्रकार है "श्रीमत्समन्तभद्रस्वामिभिरातमीमांसायामन्ययोगव्यवच्छदाव्यवस्थापितेन भगवता श्रीमताहंतान्त्यतीर्थकरपरमदेवेन मां परीक्ष्य किंचिकीर्षवो भवन्तः इति तेष्ठा इव प्राहु:-"