________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 02 विषयको लिये हुए है और उसमें द्रव्याथिक तथा पर्यायाधिक दो नयोंको मूलाधार बनाकर और यह बतलाकर कि 'तीर्थकर-वचनोंके सामान्य और विशेषरूण प्रस्तारके मूलप्रतिपादक ये ही दो नय है-शेष सब नय इन्हीके विकल्प है *, उन्हीके भेर-प्रभेदों तथा विषयका अच्छा मुन्दर विवेचन और संमूवन किया गया है। दूमरे काको उन प्रतियोंमे 'जीवकाण्ड' बतलाया हैरिखा है "जीवकंडय मम्मत"। 10 मुखलालजी पोर पं. बेचरदामजीकी गयमें यह नामकरण ठीक नहीं है, इसके स्थानपर 'ज्ञानकाण्ड' या 'उपयोगकाण्ड' नाम होना चाहिये; क्योंकि इसकाण्ड में, उनके कथानानुमार, जीवनयकी चर्चा ही नही है-पूग्णनया मुख्य चर्चा ज्ञानको है / यह ठीक है कि इस काण्डमें मानकी पर्वा एक प्रकार मुम्ए हैं परन्तु वह दर्शनको चर्चाको भी माथों लिए हुए है-उमीमे चर्चा का प्रारम्भ है-पोर ज्ञान तथा दर्शन दोनों जीवदय्यकी पर्याय है, जीवद्रव्यम् भिन्न उनकी कही कोई मना नहीं, पोर इस निये उनकी चर्चाको जीवद्रव्यमी ही नर्चा कहा जा मकना है। फिर भी ऐमा नहीं है कि हममें प्रकटरूपम नोवतन्वकी काई चना ही न हो--दूसरी गाया में व्यानो वि होऊण दमणे ज्जवटियां होई. इ-यादिमागे जीवद्रव्यका कापन किया गया है. जिमन: मुम्बनानी मादिने भी अपने अनुवादमे 'ग्रामा दर्शन वम्बते" इत्यादिम्पम स्वीकार किया है। पनेक गाथापामें कथन-सम्बन्धको निये हम मन. केवनीपल नया जिन मे अर्थपदाका भी प्रयोग है जो जोवर ही विशेष है। पोर पन्तको जीवा प्ररमाइग्गिहनों से प्रारम्भ होकर 'पणे बिय जीव जाया' पर ममाम होने वाली मात गायापोमे नो जीवका स्पष्ट ही नामोल्लेखपूर्वक कपन है...वही बचांका विषय बना हमा है। एमी स्थिति में यह कहना ममुक्ति प्रतीत होता किम कारमें जोबतत्वको पा ही नहीं है' पोर न जीकाण्ड' इम नामकरणको सवधा मनुचित अथवा पाच ही कहा जा माना है। कितने ही प्रन्थों में प्रेमी परिपाटी देखनेमे पानी है कि पर्व तथा अधिकारादिके पन्नमें जो विषय चचित होता सित्वपर-पण-मंगह-विमेम-पत्यारमूलवागरणी। दबदिपो ग पसरणपो य सा वियप्पासि // 3 //