________________ 5.2 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश है; क्योंकि इसकी प्रायः प्रत्येक गाथा एक सूत्र है अथवा भनेक मूत्र-वाक्योंको साथ में लिये हुए है। पं. सुख लालजी प्रादिने भी प्रस्तावना (पृ०६३) में इस बातको स्वीकार किया है कि 'मभूरणं सन्मतिग्रंथ मूत्र कहा जाता है पौर इसकी प्रत्येक गाथाको भी मूत्र कहा गया है / ' भावनगरको श्वेताम्बर मभामे सं० 1965 में प्रकाशित मूलप्रतिमें भी श्रीमतिमूत्रं ममासमिति भद्रम्" वाक्यके द्वारा इसे मूत्र नामके माथ ही प्रकट किया है-तकं प्रथवा प्रकरगा नाम के साथ नहीं / इमकी गणना जैनशासनके दर्शन-प्रभावक ग्रंथोंमें है / श्वेताम्बगेके 'जीतकल्पचगि' ग्रंथकी श्रीचन्द्रमुरि-विरचित 'विषमपदव्याम्या' नामको टीका. में श्रीप्रकलंकदेवके मिद्धिविनिश्चय' ग्रंथके साथ इस 'मन्मनि' प्रथका भी दर्शनप्रभावक ग्रन्यों में नामो लेख किया गया है और लिखा है कि. मे दर्शनप्रभावक शास्त्रोंका अध्ययन करने हा साधको मकपिन प्रनिमेवाका दोप भी लगे तो उमका कुछ भी प्रायश्चित नहीं है, वह माधु शुद्ध है / यथा--- दसण ति-दमग-पभावगाणि सत्याणि मिद्धिविगिन्छयमम्मन्यादि गिण्हताऽसंथरमागो ज अकापयं पमिय: जयगाए तत्थ मो मुद्धोऽप्रायश्चिन इत्यय: * / ' इसमें प्रथमोल्लम्बिन मिद्धिविनिश्चियकी नर यह ग्रन्थ भी कितने अमाधारध महत्वका है दम विजपाठक स्वय गमभ, मरते हैं। प्राय जैनदर्शनकी प्रतिष्ठाको म्व-पर-हुस्यों में पकिन करनेवाले होते है / तदनुमार यः ग्रन्थ भी अपनी कोतिको प्रमाण बनाये हुए है। इस प्रयके नीन विभाग है जिन्हें 'कागर' मंशा दी गई है। प्रथम काण्डवः कुछ हम्नलिखित तथा मुद्रित मनियों में 'नयका' बननाया है--निम्मा / "नयकंड मम्मत'-और यह ठीक ही है; क्योंकि सारा कापर नयके हो ___* श्वेतामरोंके निशीथ ग्रन्यकी चगिमें भी ऐमा ही उल्लेख है: 'दसणगाही-दमणरणाणपभावगाणि मत्थाणि सिदिविणिजय-ममति. मादि गेण्हतो प्रसंथरमाणे जं प्रकपिथं पहिमेवदि जपणाए तत्थ सो मुदी अप्रायश्चित्ती भवतीत्यर्थः।" ( उद्देशक 1)