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श्रीकुन्दकुन्दाचार्य और उनके प्रन्थं
६६ term.wmmmxwxx 'प्राचाराङ्ग' सूत्र समझा जाता है । धवला टीकामें प्राचाराङ्गके नामसे उसका नमूना प्रस्तुत करते हुए कुछ गाथाएँ उद्धृत है, वे भी इस ग्रन्थमें पाई जाती हैं; जब कि श्वेताम्बरोंके प्राचाराङ्गमें वे उपलब्ध नहीं है । इससे भी इस ग्रंथको प्राचारानकी ख्याति प्रास है । इसपर 'प्राचारवृत्ति' नामकी एक टीका आचार्य वसुनन्दीकी उपलब्ध है, जिसमें इस ग्रन्थको आचाराङ्गका उन्हीं पूर्वनिबद्ध द्वादश अधिकारोंमें उपसंहार (सारोद्धार) बतलाया, और उसके तथा भापाटीकाके अनुसार इस ग्रथको पद्यसंख्या १२४३ हैं । वसुनन्दी प्राचार्यने अपनी टीका इस ग्रन्थके कर्ताको वट्टकेराचार्य, वट्टकेल्चार्य तथा वट्ट रकाचार्य के रूपमें उल्लेखित किया है । पहलारूपटीकाके प्रारम्भिक प्रस्तावना-वाक्यमें, दूसरा वें १०३, ११वें अधिकारों के सन्धिवाक्योंमें और तीमरा ७ वें अधिकारके सन्धि-वाक्यमें पाया जाता है। परन्तु इस नामके किसी भी प्राचार्यका उल्लेख अन्यत्र गुर्वावलियों, पट्टावलियों, शिलालेखों तथा ग्रंथप्रगस्तियों आदिमें कहीं भी देखने नहीं पाता; और इसलिये ऐतिहासिक विद्वानों एवं रिसर्चम्कालगेंके सामने यह प्रश्न बराबर खड़ा हुअा है कि ये वट्टकेगदि नामके कौनमे प्राचार्य हैं और कब हुए हैं ?
मूलाचारकी कितनी ही ऐमी पुरानी हम्नलिखित प्रतियां पाई जाती हैं जिनमें ग्रंथकर्ताका नाम कुन्दकुन्दाचार्य दिया हुआ है। डाक्टर ए० एन० उपाध्येको दक्षिणभारतकी ऐसी कुछ प्रतियोंको स्वयं देखनेका अवसर मिला है और जिन्हें, प्रवचनमारकी प्रस्तावनामें, उन्होंने quite: genuine in their appearance'--'अपने रूपमें बिना किमी मिलावटके बिल्कुल असली प्रतीत होनेवाली' लिखा है। इसके सिवाय, माग्गिकचन्द दि. जैन ग्रन्थमालामें मूलाचारकी जो मटीक प्रति प्रकाशित हुई है उसकी अन्तिम पुष्पिकामें भी मूलाचारको कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत' लिखा है । वह पुष्पिका इस प्रकार है :____ "इति मूलाचार-विवृत्तौ द्वादशोऽध्यायः । कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीतमूला वाराख्यविवृतिः । कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रीश्रमणस्य ।'
यह सब देखकर मेरे हृदय में खयाल उत्पन्न हुप्रा कि कुन्दकुन्द एक बहुत * देवो, माणिकचन्दग्रंथमालामें प्रकाशित ग्रंथके दोनों भाग नं० १६, २३ ।