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________________ 528 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश हैं मोर यह भी हो सकता है कि किसी दावि शिकाके कर्ता इन तीनोसे भिन्न कोई अन्य ही हों। इन तीनों सिद्ध सेनाका पस्तित्वकाल एक दूसरेसे भिन्न अथवा कुछ अन्तरालको लिये हुए है और उनमें प्रयम सिट सेन कतिपय द्वात्रिशिकामोंके कर्ता, द्वितीय सिद्ध मेन सन्मतिमूत्रके कर्ता और तृतीय मिड मेन न्यायावतारके कर्ता है / नीचे अपने अनुसन्धान-विषयक इन्ही सब बातोंको मक्षेपमें स्पष्ट करके बतलाया जाता है : (1) सन्मनिमूत्रके द्वितीय कापरमे केवलीके ज्ञान-दर्शन-उपयोगांको क्रमवादिता और युगपट्टादिताम दांप दिखाते हुए प्रभदवादिता प्रथवा एकोपयागवादिताका स्थापन किया है। माथ ही, ज्ञानावरण और दर्शनावरणका युगपत क्षय मानते हुए भी यह बतलाया है कि दो उपयोग एक माथ कही नही हात और केवलीमे वे क्रमशः भी नहीं होते। इन ज्ञान और दर्शन उपयोगोका भेद मन:पयं यज्ञान पयंन्त अथवा अस्थावस्था तक ही चलता है, केवलज्ञान हाजानेपर दोनों में कोई भेद नही रहना--नब मान कहो पथवा दमन एक है। बात है. दोनोंमें कोई विषय-भेद चरितार्थ नहीं होता / इमक लिए प्रयवा आगमग्रन्थोंमे अपने इस कथनकी मङ्गनि बिउलान के दिनकी 'प्रविशंपरहित निगकार सामान्यग्रहणरूप' जो परिभाषा है उसे भी बदल कर रखा है अर्थात् यह प्रतिपादन किया है कि मस्पृष्ट तथा प्रविषयम्प पदार्थम अनुमानजानको छोड़कर जो ज्ञान होता है वह दर्शन है। इस विषयमे सम्बन्ध रखनेवाली कुछ गाथा नमूने के तौर पर इस प्रकार है मणपज्जवणाणं ती गणाणम्स दरिसाम्स य विममी। केवलणाणं पुग्ण दमण नि गाणं ति य समारणं / / 3 / / कई भणंति 'जच्या जागा नया ण पासा जिणी' ति। सुनमवलंबमाणा तित्थ यरामायणाभीरू // 4 // केवलणाणावरणस्वयजाय केवल जहा गाणं। तह दंसरणं पि जुनाणियावरणस्वयम्सते // 5 // सुत्तम्मि चेव 'साइ अपजयसियंति केवल वृत्तं / सुत्तासायणभीरूहि त च ददुश्वयं सह // //
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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