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________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 52. प्रस्तावनामें केवल इतना ही लिख दिया है कि 'इन सबके पीछे रहा हुमा प्रतिभाका समान तत्व ऐसा मानने के लिए ललचाता है कि ये सब कृतियां किसी एक ही प्रतिभाके फल है।' यह सब कोई समर्थ युक्तिवाद न होकर एक प्रकारसे अपनी मान्यताका प्रकाशनमात्र है; क्योकि इन सभी ग्रन्थोंपरसे प्रतिमाका ऐमा कोई समाधारण समान तत्व उपलब्ध नहीं होता जिसका अन्यत्र कही भी दर्शन न होता हो / स्वामी समन्तभद्रके मात्र स्वयम्भूम्तोत्र पौर प्राप्तमीमांसा ग्रन्थों के साथ इन ग्रन्थों की तुलना करते हुए स्वय प्रस्तावनालेखकोंने दोनोंमें 'पुष्कल साम्य' का होना स्वीकार किया है और दोनो प्राचार्योकी ग्रन्थनिर्माणादि-विषयक प्रतिभाका कितना ही चित्रण किया है / और भी प्रकलंकविद्यानन्दादि कितने ही प्राचार्य एम है जिनकी प्रतिभा इन ग्रन्थोके पीछे रहने. वाली प्रतिभासे कम नहीं है, तब प्रतिभाकी समानता एमी कोई बात नहीं रह जानी जिमकी अन्यत्र उपलब्धि न हो मके और इसलिये एकमात्र उसके आधारपर इन सब प्रत्योंको, जिनके प्रतिपादन में परस्पर कितनी ही विभिन्नताएँ पाई जाती है, एक ही पाचायंकृत नहीं कहा जा सकता। जान पड़ता है समानप्रतिभाक उक्त लालच मे पडकर ही बिना किमी गहरी जांच-पड़तालके इन सब ग्रन्थोको एक ही प्राचार्यकृत मान लिया गया है, अथवा किसी साम्प्रदायिक मान्यताको प्रश्रय दिया गया है जबनि वस्तुस्थिति बनी मालूम नहीं होती। गम्भीर गवेषग्गा पोर इन प्रत्याको पन्त परीक्षादिपम मुझे इस गानका पता चला है कि मम्मतिमूत्र कमिटमेन पनेफ द्वात्रिमिकाप्रोके कर्मा मिद्धमेनमे भिन्न है / यदि २१वा वात्रशिकाको ठोसर शेष 20 त्रिशिकाएं एक ही सिद्धमेनकी कृतियां हों तो वे उनमे किमी भी द्वात्रिमिकाके कर्ता नहीं हैं. अन्यथा द्वात्रिशिकायोके कर्ता हो सकते है / न्यायावतार के कर्ता मिद्धमेनकी भी ऐसी ही स्थिति है सम्मतिमूत्र के कर्ता मिटमेनमे जहां भिन्न है वहा कुछ त्रिशिकामोंके कर्ता सिटमेनसे भी भिन्न है और उक्त 20 द्वात्रि शिकाएं यदि एकमे अधिक सिरसेनोंकी कृतियो हों तो वे उनसे कुछके कर्ता हो सकते है, अन्यथा किसी भी कर्ता नहीं बन सकते / इस तरह सन्मतिबके कर्ता, न्यायावतारके कर्ता और कतिपय हाधिभिकामोंके कर्ता तीन सिङसेन अलग अलग है-- शेष नात्रिशिकायोंके का इन्हीमेसे कोई एक या दो अथवा तीनों हो सकते
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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