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________________ 526 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश दिवाकरके जीवनवृत्तान्तमें स्थान पाई हुई संस्कृत बत्तीसियों के साथ में परिगणित हुए बिना शायद ही रहता / ' पहेलीका यह हल कुछ भी महत्त्व नहीं रखता। प्रबन्धोंसे इसका कोई समर्थन नहीं होता और न इस बातका कोई पता ही चलता है कि उपलब्ध जो द्वात्रिशिकाएं स्तुत्यात्मक नहीं है वे सब दिवाकर मिद्धमेनके जीवनवृतान में दाखिल हो गई है और उन्हें भी उन्ही सिद्ध मेनकी कृतिरूपसे उनमें स्थान मिला है. जिसमे उक्त प्रतिपादनका ही समर्थन होताप्रबन्धरिणत जीवनवृत्तान्तमें उनका कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है। एकमात्र प्रभावकचरितमें 'न्यायावतार' का जो असम्बद्ध, असथिन पोर प्रममजस उल्लेख मिलता है उसपरमे उसकी गणना उस द्वात्रिशद्वात्रिशिकाक अगरूपम नहीं की जा सकती जो सब जिन-सुतिपरक थी, वह एक जुदा ही म्वतन्त्र प्रथ है, जैसा कि ऊपर व्यक्त किया जा चुका है / पोर म-मतिप्रकरणका वनीम इलोकपरिमाण न होना भी मिद गनक जीवनवृतान्त मे सम्बद्ध कृतियोम उसके परिगणित होने के लिये कोई बाधक नहीं कहा जा सकना-खामकर उस हालतमे जबकि चवालीम पद्यमध्यावाले कल्याणमन्दिरस्तोत्रका उनकी कृतियोमे परिगणित किया गया है और प्रभावक चरितम इमं पद्यमस्याका मष्ट उल्लेम भी माथमें मौजूद है / वास्तवमे प्रबन्धोपरम यह मन्थ उन मिद्धपनदिवाकर की कृति मालूम ही नहीं होता, जो वृद्धवादीक शिष्य थे और जिन्हें पागम प्रायोका मस्कृत अनुवादित करने का अभिप्रायमात्र व्यक्त करनेपर पाक्षिकप्रायश्चितके पौ बारह वर्ग तक श्वेताम्बरमधमे बाहर रहनेका कठोर दर दिया जाना बनलाया जाता है। प्रस्तुत ग्रंथको उन्हीं मिद्ध मेनकी कृति बतलाना,यह सब बादकी कल्पन और योजना ही जान परनी है। पं० सुखलालजीने प्रस्तावनामें तथा अन्यत्र भी द्वात्रिशिकामों, न्यायावतार और मन्मतिसूत्रका एककर्तृत्व प्रतिपादन करने के लिये कोई खाम हेतु प्रस्तुत नही किया, जिससे इन सब कृतियोंको एक ही प्राचार्यकृत माना जा सके, ततश्चनुश्चत्वारिंशद्वृत्तां स्तुतिमा बगी। कल्याणमन्दिरेत्यादिविख्यातां जिनशासने // 14 // * - माविका प०१०१ /
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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