________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन (प्रथम) जिनमद्रक्षमाश्रमणने अपने महान् ग्रन्थ विशेषावश्यक-भाष्यमें, जो विक्रम सवत् 666 में बनकर समाप्त हुआ है और लघुग्रन्थ विशेषणवतीमें सिद्ध सेनदिवाकरके उपयोगाऽभेदवादको तथैव दिवाकरकी कृति सन्मतितके टीकाकार मल्लवादीके उपयोग-योग-पद्यवादको विस्तृत समालोचना की है। इससे तथा मल्लवादीके द्वादशारनयचक्र के उपलब्ध प्रतीकोंमें दिवाकरका सूचन मिलने और जिनमद्रगगि का सूचन न मिलने से मल्लवादी जिनभद्रसे पूर्ववर्ती और सिद्धसेन मल्लवादीमे भी पूर्ववर्ती सिद्ध होते है / मल्लवादीको यदि विक्रमकी छठी शताब्दीके पूर्वाधं में मान लिया जाय तो सिद्धसेनदिवाकरका समय जो पांचवीं शताब्दी निर्धारित किया गया है वह अधिक सङ्गत लगता है। (द्वितीय) पूज्यपाद देवनन्दीने अपने जनेन्द्रव्याकरणके 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' इस सूत्रमे सिद्ध सेनके मतविशेषका उल्लेख किया है और वह यह है कि सिद्धसेनके मतानुसार 'विद्' धातुके '' का मागम होता है, चाहे वह धातु सकर्मक ही क्यों न हो। देवनन्दीका यह उल्लेख बिल्कुल सच्चा है क्योंकि दिवाकरकी जो कुछ थोड़ीमी संस्कृत कृतियां बची है उनमेमे उनकी नवमी द्वात्रिशिकाके २२वें पद्य में 'विद्रते: ऐसार प्रागम वाला प्रयोग मिलता है। अन्य व्याकरण जब 'सम्' उपसर्ग पूर्वक और अकर्मक 'विद्' धातुके '' प्रागम स्वीकार करते है तब सिद्ध मेनने अनुपसर्ग और सकर्मक 'विद्' धातुका 'र' प्रागमवाला प्रयोग किया है / इसके मिवाय, देवनन्दी पूज्यपादकी सर्वार्थमिद्धि नामकी तन्वार्थ-टीकाके सप्तम अध्यायगत १३वें सूत्रकी टीकामें सिद्धमेनदिवाकरके एक पद्यका अंश 'उत्तच गदके साथ उद्धृत पाया जाता है पौर वह है "वियोजयति चामभिनं च वधन संयुज्यते / ' यह पद्यांश उनकी तीसरी द्वात्रिशिकाके १६वे पद्यका प्रथम चरण है। पूज्यपाद देवनन्दीका समय वर्तमान मान्यतानुसार विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वाध है अर्थात् पांचवीं शताब्दीके प्रमुक भागमे छठी शताब्दोके प्रमुक भाग तक लम्बा है / इसस सिद्धसेनदिवाकरकी पांचवी शताब्दीमें होने की बात जो अधिक संगत कही गई है उसका खुलासा हो जाता है। दिवाकरको देवनन्दीसे पूर्ववर्ती या देवनन्दीके वृद्ध समकालीनरूपमे मानिये तो भी उनका जीवनसमय पांचवीं शताब्दीसे पर्वाचीन नहीं ठहरता।