________________ mance 548... जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश "सप्ताश्विवेदसंख्यं शककालमपास्य चैत्रशुक्लादो। . अर्धास्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्यदिवसाये // 8 // " जब नियुक्तिकार भद्रबाहुका उक्त समय सुनिश्चित हो जाता है तब यह कहने में कोई प्रापत्ति नहीं रहती कि सन्मतिकार सिद्धसेनके समयकी पूर्वसीमा विक्रमकी छठी शताब्दीका तृतीय चरण है और उन्होंने क्रमवादके पुरस्कर्ता उक्त भद्रबाहु अथवा उनके अनुसर्ग किसी शिष्यादिके क्रमवाद-विषयक कथनको लेकर ही सन्मतिमें उसका खण्डन किया है। ___ इस तरह सिद्धपेनके समयको पूर्वसीमा विक्रमकी छठी शताब्दीका तृतीय चरण और उत्तरमीमा विक्रमकी सातवीं शताब्दीका तृतीय चरण (वि० स० ५६२से 666) निश्चित होती है। इन प्रायः सौ वर्षके भीतर ही किसी समय सिद्धसेनका ग्रन्यकाररूपमें अवतार हुप्रा और यह ग्रन्थ बना जान पड़ता है। . (3) सिद्धसेनके समय-सम्बन्धमें पं० मुख लालजी संघवीकी जो स्थिति रही है उसको ऊपर बतलाया जा चुका है। उन्होंने अपने पिछले लेखमें, जो 'सिद्धसेनदिवाकरना समयनो प्रश्न' नाममे 'भारतीयविद्या के तृतीय भाग ( श्रीबहादुरसिंहजी सिंघी स्मृतिग्रन्थ ) में प्रकाशित हुपा है, अपनी उम गुजराती प्रस्तावना-कालीन मान्यताको जो सन्मतिके प्रजी संस्करण के अवसर पर फ़ोरवर्ड { foreword )+ लिखे जाने के पूर्व कुछ नये बौद्ध ग्रन्थों के सामने पाने के कारण बदल गई थी और जिसकी फोरवर्ड में सूचना की गई है फिरसे निश्चितरूप दिया है, अर्थात विक्रमकी पांचवी शताब्दीको ही सिद्ध सेनका समय निर्धारित किया है और उमीको अधिक सङ्गत बतलाया है। अपनी इस मान्यताके समर्थन में उन्होंने जिन दो प्रमाणोंका उल्लेख किया है उनका सोर इस प्रकार है, जिसे प्रायः उन्हींके शब्दोंके अनुवादरूपमें सकुलिन किया गया है: ___t फ़ोरवडंके लेखकरूपमें यद्यपि नाम 'दलसुख मालवणिया'का दिया हुमा है परन्तु उसमें दी हुई उक्त सूचनाको पणित सुखलालजीने उक्त लेसमें अपनी ही सूचना और अपना ही विचार-परिवर्तन स्वीकार किया है।