________________ 550 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इनमेंसे प्रथम प्रमाण तो वास्तव में कोई प्रमाण ही नहीं है। क्योंकि वह 'मल्लवादीको यदि विक्रमकी छठी शताब्दीके पूर्वार्धमें मान लिया जाय तो इस भ्रान्त कल्पना पर अपना प्राधार रखता है। परन्तु क्यों मान लिया जाय अथवा क्यों मान लेना चाहिये, इसका कोई स्पष्टीकरण साथमें नहीं है / मल्लवादीका जिनभद्रसे पूर्ववर्ती होना प्रथमतो सिद्ध नहीं है, सिद्ध होता भी तो उन्हें जिनभद्रके समकालीन वृद्ध मानकर अथवा 25 या 50 वर्ष पहले मानकर भी उस पूर्ववर्तित्वको चरितार्थ किया जा सकता है. उसके लिये 100 वर्षसे भी अधिक समय पूर्वकी बात मान लेने की कोई जरूरत नहीं रहती। परन्तु वह सिद्ध ही नहीं है; क्योंकि उनके जिस उपयोग-योगपद्यवादकी विस्तृत समालोचना जिनभद्रके दो ग्रन्थों में बतलाई जाती है उनमें कही भी मल्लवादी अथवा उनके किसी ग्रन्यका नामोल्लेख नहीं है, होता तो पण्डितजी उस उल्लेखवाले अंशको उद्धृत करके ही मन्तोष धारण करते, उन्हें यह तर्क करनेकी जरूरत ही न रहतो और न रहनी चाहिये थी कि 'मल्लवादीके द्वादशारनयचक्र उपलब्ध प्रतीकोंमें दिवाकरका सूचन मिलने और जिनभद्रका सूचन न मिलनेमे मल्लवादी जिनभद्रसे पूर्ववर्ती है'। यह तर्क भी उनका अभीष्टसिद्धि में कोई सहायक नहीं होता; क्योंकि एक तो किसी विद्वान् के लिये लाजिमी नहीं कि वह अपने ग्रन्थमें पूर्ववर्ती अमुक अमुक विद्वानोंका उल्लेख करे ही करे / दूसरे, मूल द्वादशारनयचक्के जब कुछ प्रतीक ही उपलब्ध है-वह पूरा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है-तब उसके अनुपलब्ध अंशोंमें भी जिनभद्रका अथवा उनके किसी ग्रंथादिका उल्लेख नहीं इसकी क्या गारण्टी ? गारण्टीके न होने और उल्लेखोपलब्धिकी सम्भावना बनी रहनेसे मल्लवादीको जिनभद्रके पूर्ववर्ती बतलाना तकदृष्टिसे कुछ भी अर्थ नहीं रखता / तीसरे, ज्ञानबिन्दुको परिचयात्मक प्रस्तावनामें पण्डित सुखलालजी स्वयं यह स्वीकार करते है कि "अभी हमने उस सारे सटीक नयचक्रका अवलोकन करके देखा तो उसमें कहीं भी केवलज्ञान और केवलदर्शन (उपयोगढय)के सम्बन्धमें प्रचलित उपयुक्त वादों (कम, युगपत् और अभेद) पर थोड़ी भी चर्चा नहीं मिली / यपि सन्मतितकंको मल्लवादि-कृत-टीका उपलब्ध नहीं है पर जब मल्लवादी अभेदसमर्थक दिवाकरके ग्रन्यपर टीका लिसें तब यह कैसे माना जा सकता है कि उन्होंने