SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 555
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ / सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन दिवाकरके ग्रन्थकी व्याख्या करते समय उसीमें उनके विरुद्ध अपना युगपत् पक्ष किसी तरह स्थापित किया हो / इस तरह जब हम सोचते हैं तब यह नहीं कह सकते हैं कि अभयदेवके युगपद्वादके पुरस्कर्तारूपसे मल्लवादीके उल्लेखका प्राधारनयचक्र या उनकी सन्मतिटीकासे रहा होगा। साथ ही अभयदेवने सन्मतिटीकामें विशेषगवतीको “केई भरणंति जुगवं जाणइ पासइ य केवली रिणयमा" इत्यादि गाथाओंको उद्धत करके उनका अर्थ देते हुए 'केई' पदके वाच्यरूपमें मल्लवादीका जो नामोल्लेख किया है और उन्हें युगपद्वादका पुरस्कर्ता बतलाया है उनके उस उल्लेखकी अभ्रान्ततापर सन्देह व्यक्त करते हुए, पण्डित सुखलालजी लिखते हैं--"अगर अभयदेवका उक्त उल्लेखांश प्रभ्रान्त एवं साधार है तो अधिकम अधिक हम यही कल्पना कर सकते हैं कि मल्लवादीका कोई अन्य युगपत् पक्ष-समर्थक छोटा बड़ा ग्रन्थ अभयदेवके सामने रहा होगा अथवा ऐसे मन्तव्यवाला कोई उल्लेख उन्हें मिला होगा।" और यह बात ऊपर बतलाई ही जा चुकी है कि अभयदेवसे कई शताब्दी पूर्वक प्राचीन प्राचार्य हरिभद्रसूग्नेि उक्त 'केई' पदके वाच्यरूपमें सिद्धसेनाचार्यका नाम उल्लेखित किया है, पं० सुखलालजीने उनके उस उल्लेखको महत्त्व दिया है तथा सन्मतिकारसे भिन्न दूसरे सिद्धसेनकी सम्भावना व्यक्त की है, और वे दूसरे सिद्धसेन उन द्वात्रिशिकाओंके कर्ता हो सकते हैं जिनमें युगपदवादका समर्थन पाया जाता है, इसे भी ऊपर दर्शाया जा चुका है। इस तरह जब मल्लवादीका जिनभद्रमे पूर्ववर्ती होना सुनिश्चित ही नहीं है तब उक्त प्रमाण और भी निःसार एव बेकार हो जाता है। साथ ही, प्रभयदवका मल्लवादीको युगपद्वादका पुरस्कर्ता बतलाना भी भ्रान्त ठहरता है। ___ यहाँपर एक बात और भी जान लेने की है और वह यह कि हालमें मुनि श्रीजम्बूविजयजीने मल्लवादीके सटीक नयचक्रका पारायण करके उसका विशेष परिचय 'श्रीमात्मानन्दप्रकाश' (वर्ष 45 अंक 7 ) में प्रकट किया है, उसपरसे यह स्पष्ट मालूम होता है कि मल्लवादीने अपने नयचक्रमें पद-पदपर 'वाक्यपदीय' ग्रन्थका उपयोग ही नहीं किया बल्कि उसके कर्ना भर्तृहरिका नामोल्लेख मोर भर्तृहरिके मतका खण्डन भी किया है। इन भर्तृहरिका समय इतिहासमें चीनी यात्री इत्सिङ्गके यात्राविवरणादिके अनुसार ई. सन् 600 से 650
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy