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जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
बलसे साक्षात् शिवको अवतारित करके यह भोजन उन्हें ही कराया है। इससे राजाकी भक्ति बढ़ी और वह नित्य ही उत्तमोत्तम नैवेद्यका समूह तैयार करा कर भेजने लगा । इस तरह, प्रचुर परिमाण में उत्कृष्ट श्राहारका सेवन करते हुए, जब पूरे छह महीने बीत गये तब आपको व्याधि एकदम शांत होगई और प्राहारकी मात्रा प्राकृतिक हो जाने के कारण वह सब नैवेद्य प्रायः ज्योंका त्यों बचने लगा। इसके बाद राजाको जब यह खबर लगी कि योगी स्वयं ही वह भोजन करता रहा है और 'व' को प्रणाम तक भी नहीं करता तब उसने कुपित होकर योगी से प्रणाम न करनेका कारण पूछा। उत्तरमे योगिराजने यह कह दिया कि 'तुम्हारा यह रागी द्वेषी देव मेरे नमस्कारको महन नहीं कर सकता, मेरे नमस्कारको सहन करनेके लिये वे जिनसूर्य ही समर्थ हैं जो अठारह दापोसे रहिन है और केवलज्ञानरूपी सनेजमे लोकालोकके प्रकाशक हैं। यदि मेने नमस्कार किया तो तुम्हारा यह देव ( शिवलिङ्ग ) विदीं हो जायगा -खंड खंड हो जायगा -इसमें में नमस्कार नही करता है। इस पर राजाका कौतुक बढ़ गया और उसने नमस्कारके लिये आग्रह करते कहा - 'यदि यह देव खंड खंड हो जायगा तो हो जाने दीजिये, मुझे तुम्हारे नमस्कार के सामथ्र्यको जरूर देखना है । समन्तभद्रने स्वीकार किया और अगले दिन अपने गामध्यंको दिखलाने का वादा किया। राजाने एवमस्तु' कहकर उन्हें मन्दिरमे रखवा और बाहर से चीकी पहरेका पूरा इन्तजाम कर दिया। दो पहर रात बीतने पर समन्तभद्रको अपने वचन निर्वाहकी निन्ता हुई, उससे अम्विकादेवीका ग्रामन डोल गया । वह दौडी हुई आई, आकर उसने समन्तभद्रको आश्वासन दिया और यह कहकर चली गई कि तुम स्वयंभुवा भूतहितेन भूतले' इस पद प्रारम्भ करके चतुविशति तीर्थंकरोंकी उन्नत स्मृति रवां, उसके प्रभाव से सत्र काम शीघ्र हो जायगा और यह कूलिंग टूट जायगा । समन्तभद्रको इस दिव्यदर्शन प्रसन्नता हुई और वे निर्दिष्ट स्तुतिको रचकर सुखगे स्थित हो गये । सवेरे ( प्रभात समय ) राजा श्राया श्रीर उसने वही नमस्कार द्वारा सामर्थ्य दिखलाने की बात कही। इस पर समन्तभद्रने ग्रपनी उस महास्तुनिको पढ़ना प्रारम्भ किया । जिस वक्त 'चन्द्रप्रभ' भगवानकी स्तुति करते हुए 'तमस्तमोरेरिव रश्मिभिन्नं' यह वाक्य पढा गया उसी वक्त वह 'शिवलिंग' खंड खंड