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समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल
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भोजaint सम्प्रासिका प्रभाव था, इसलिये समन्तभद्र कांचीको छोड़कर उत्तरकी प्रोर चल दिये । चलते चलते वे 'पुण्ड्रेो न्दुनगर' में पहुंचे, वहाँ बौद्धोंकी महती दानशाला को देखकर उन्होंने बौद्ध भिक्षुकका रूप धारण किया; परन्तु जब वहाँ भी महाव्याधिको शान्तिके योग्य आहार का प्रभाव देखा तो ग्राम वहाँसे निकल गये और क्षुधामे पीडित अनेक नगरों में घूमते हुए 'दशपुर' नामके नगरमें भागवतों (undi) का उन्नत मठ देखकर और यह देखकर कि यहाँपर भागवत लिङ्गधारी माधुग्रोंको भक्तजनों द्वारा प्रचुर परिमाण में सदा विशिष्ट आहार भेंट किया जाता है. आपने बौद्ध-वेपका परित्याग किया और भागवतवेष धारण कर लिया, परन्तु यहाँका विशिष्टाहार भी ग्रापकी भस्मक व्याधिको शान्त करने में समर्थ न हो सका और इस लिये ग्राप यहां भी चल दिये । इसके बाद नानादिग्देशादिकोंमें घूमते हुए ग्राम ग्रन्नको 'वाराणसी' नगरी पहुँचे और वहां आपने योगिलिङ्ग धारण करके शिवकोटि राजाके शिवालय में प्रवेश किया । इस शिवालय में शिवजी के भांगके लिये तय्यार किये हुए अठारह प्रकारके सुन्दर श्रेष्ठ भोजनोंके समूहको देखकर आपने सोचा कि यहां मेरी दुर्व्याधि जरूर शान्त हो जायगी । इसके बाद जब पूजा हो चुकी और वह दिव्य श्राहार— ढेर का ढेर नैवेद्य-बाहर निक्षेपित किया गया तब आपने एक युक्ति के द्वारा लोगों तथा राजाको ग्राश्चर्यमें डालकर शिवको भोजन करानेका काम अपने हाथ में लिया। इस पर राजाने घी, दूध, दही और मिठाई ( इक्षुरम ) आदिने मिश्रित नाना प्रकारका दिव्य भोजन प्रचुर परिमाणमे ( पूर्ण: कुभशनैर्युक्तं भरे हुए सो घड़ों जितना ) तय्यार कराया और उसे शिवभांजनके लिये योगिराजके सुपुर्द किया। समंतभद्रने वह भोजन स्वयं खाकर जब मंदिरके कपाट खोले मौर वाली बरतनोंको बाहर उठा ले जानेके लिये कहा, नब राजादिकको बड़ा प्राचयं हुआ । यही समभा गया कि योगिराजने अपने योग
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+ 'पुण्ड्र' नाम उत्तर बंगालका है जिसे 'पौण्ड्रवर्धन' भी कहते हैं । 'पुण्ड्रे न्दु. नगर से उत्तर दंगालके इन्द्रपुर, चन्द्रपुर अथवा चन्द्रनगर आदि किसी खास : शहरका अभिप्राय जान पड़ता है। छपे हुए 'आराधनाकथाकोश' (श्लोक ११ ). में ऐसा ही पाठ दिया है । संभव है कि वह कुछ अशुद्ध हो ।