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जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
प्राचीन राजाका यदि नाम नहीं मिलता तो यह कुछ भी श्राश्चर्यकी बात नहीं है । यद्यपि ज्यादा पुराना इतिहास मिलता भी नहीं, परन्तु जो मिलता है और मिल सकता है उसको संकलित करनेका भी अभी तक पूरा प्रायोजन नहीं हुआ । जैनियोंके ही बहुतसे संस्कृत, प्राकृत, कनड़ी, तामिल और तेलगु प्रादि ग्रन्थोंमें इतिहासकी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है जिसकी ओर अभी तक प्राय: कुछ भी लक्ष्य नहीं गया । इसके सिवाय, एक एक राजाके कई कई नाम भी हुए हैं और उनका प्रयोग भी इच्छानुसार विभिन्न रूपसे होता रहा है, इससे यह भी संभव है कि वर्तमान इतिहासमें 'शिवकोटि का किसी दूसरे ही नामसे उल्लेख हो * और वहाँ पर यथेप्त परिचय के न रहनेसे दोनोंका समीकरण न हो सकता हो, और वह समीकरण विशेष अनुसन्धानकी अपेक्षा रखता हो । परन्तु कुछ भी हो, इतिहासकी ऐसी हालत होते हुए, बिना किसी गहरे अनुसंधानके यह नहीं कहा जा सकता कि 'कोट' नामका कोई राजा हुम्रा ही नहीं, और न शिवकोटिके व्यक्तित्वमे ही इनकार किया जा सकता है। 'राजावलिकथे' में शिवकोटिका जिस ढंगमे उल्लेख पाया जाता है और पट्टावलियों तथा शिलालेखों प्रादि द्वारा उसका जैसा कुछ समर्थन होता है उस परसे मेरी यही राय होती है कि 'शिवकोटि' नामका श्रथवा उस व्यक्तित्वका कोई राजा जरूर हुआ है, और उसके अस्तित्वकी संभावना अधिकतर काचीकी ओर ही पाई जाती है; ब्रह्मनंमिदत्तनं जो उसे वाराणसी ( काशी बनारस ) का राजा लिखा है वह कुछ ठीक प्रतीत नही होता । ब्रह्म नेमिदत्तको कथामे और भी कई बातें ऐसी है जो ठीक नहीं जंचती। इस कथा में लिखा है कि
कांचीमें उस वक्त भस्मक व्याधिको नाश करने के लिये समर्थ (स्निग्वादि )
* शिवकोटिमे मिलते-जुलते शिवस्कन्दवर्मा ( पल्लव ) शिवमृगेशवर्मा ( कदम्ब ), शिवकुमार ( कुन्दकुन्दाचार्यका शिष्य ) शिवस्कन्द वर्मा हारितीपुत्र ( कदम्ब ), शिवस्कन्द शातकरण ( श्रांध्र ), शिवमार (गंग ), शिवश्री (प्रांत), और शिवदेव ( लिच्छिवि), इत्यादि नामोंके धारक भी राजा हो गये हैं। संभव है कि शिवकोटिका कोई ऐसा ही नाम रहा हो, अथवा इनमेंसे हो कोई शिवकोटि हो ।