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________________ समतभद्रके प्रन्योंका संक्षिप्त परिचय २६६ कि यदि यह अंथ, वास्तवमें, इन्हीं समन्तभद्राचार्य का बनाया हुमा है तो इसका बहुत शीघ्र उद्धार करने और उसे प्रकाशमें लानेकी बड़ी ही आवश्यकता है। १० कर्मप्रामत-टीका प्राकृतभाषामें, श्रीपुष्पदन्त-भूतबल्याचार्य-विरचित 'कर्मप्राभृत' अथवा 'कर्मप्रकृतिप्राभृन' नामका एक सिद्धान्त ग्रंथ है ! यह ग्रंथ १जीवस्थान, २क्षुल्लकबन्ध, ३बन्धस्वामित्व, ४भाववेदना, ५वर्गणा और ६ महाबन्ध नामके छह खंडोंमें विभक्त है, और इमलिये इसे 'षट् खण्डागम' भी कहते हैं। समन्तभद्रने इस ग्रंथके प्रथम पांच खंडोंकी यह टीका बड़ी ही सुन्दर तथा मृदु संस्कृत भाषामें लिखी है और इसकी संख्या अझतालीस हजार श्लोकपरिमाण है; ऐसा श्रीइद्रनंद्याचार्यकृत 'श्रुतावतार' पथके निम्नवाक्योंसे पाया जाता है। साथ ही, यह भी मालूम होता है कि समन्तभद्र 'कषायप्राभूत' नामके द्वितीय सिद्धान्तग्रंथकी भी व्याख्या लिखना चाहते थे; परतु द्रव्यादि-शुद्धिकरण-प्रयत्नोंके प्रभावसे, उनके एक सधर्मी साधुने (गुरुभाईने ) उन्हें वसा करनेसे रोक दिया था कालान्तरे ततः पुनरासन्ध्या पलरि (?) तार्किकाऽर्कोभूत ॥१६॥ श्रीमान्समंतभद्रम्वामीत्यथ सोऽप्यधीत्य तं द्विविधं । सिद्धान्तमतः पटखंडागमगतखंडपंचकस्य पुनः ।। १६८।। अष्टौ चत्वारिंशत्सहस्रसग्रंथरचनया युक्तां। विरचिनवानतिसुन्दरमृदुसंस्कृतभाषया टीकाम् ।। १६६ ।। विलिवन द्वितीयमिद्धान्तस्य व्याख्यां सधर्मणा स्वेन । द्रव्यादिशुद्धिकरणप्रयत्नविरहात्प्रतिनिषिद्धः ॥१७॥ इस परिचयमें उस स्थानविशेष अथवा ग्रामका नाम भी दिया हुपा है जहाँ ताकिकमूर्य स्वामी समंतभद्रने उदय होकर अपनी टीकाकिरणोंसे कर्मप्राभूत सिद्धान्तके अर्थको विकसित किया है। परन्तु पाठकी कुछ अशुद्धिके कारण निकलवाकर देखने पर उसके सम्बन्ध यथेष्ट सूचनाएं देनेका वायदा भी किया था; परंतु नहीं मालूम क्या वजह हई जिससे वे मुझे फिर कोई सूचना नहीं दे सके । यदि शास्त्रीजीसे मेरे प्रश्नोंका उत्तर मिल जाता तो मैं पाठकोंको इस पंचका अच्छा परिचय देनेके लिये समर्थ हो सकता था।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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