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१८८ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
श्रीविद्यानन्द आचार्य, स्वामी समंतभद्रके वचनसमूहका जयघोष करते हुए लिखते हैं कि स्वामीजीके वचन नित्यादि एकान्त गर्तो में पड़े हुए प्राणियोंको अनर्थसमूहसे निकालकर उस उच्च पदको प्राप्त करानेके लिये समर्थ हैं जो उत्कृष्ट मंगलात्मक तथा निर्दोष है, स्याद्वादन्यायके मार्गको ग्रथित करनेवाले हैं, सत्यार्थ हैं, परीक्षापूर्वक प्रवृत्त हुए हैं अथवा प्रेक्षावान् † - समीक्ष्यकारीआचार्यमहोदयके द्वारा उनकी प्रवृत्ति हुई है, और उन्होंने संपूर्ण मिथ्या प्रवादको विघटित - तितर वितर—कर दिया है ।
प्रज्ञाधीशप्रपूज्योज्ज्वल गुणनिकरोद्भ तसत्कीर्तिसम्पद्विद्यानंदोदयायानवरतमखिलक्लेशनिर्णाशनाय । स्वाद्गौः सामन्तभद्री दिनकररुचिजित्सप्तभंगीविधीद्धा भावादकान्तचेतस्तिमिर निरसनी वोऽकलंकप्रकाशा ॥ - प्रष्टसहस्री |
इस पद्य में वे ही विद्यानंद प्राचार्य यह सूचित करते हैं कि समन्तभद्रकी वाणी उन उज्ज्वल गुणों के समूहसे उत्पन्न हुई सत्कीतिरूपी सम्पत्तिमे युक्त है
* वस्तु सर्वथा नित्य ही है- कूटस्थवत् एकरूपतासे रहती है- - इस प्रकारकी मान्यताको 'नित्यैकान्त' कहते हैं और उसे सर्वथा क्षणिक मानना - क्षरणक्षण में उसका निरन्वयविनाश स्वीकार करना -- - 'क्षणिकैकान्त' वाद कहलाता है । 'देवागम' में इन दोनों एकान्तवादोंकी स्थिति और उसमें होनेवाले अनर्थीको बहुत कुछ स्पष्ट करके बतलाया गया है ।
+ यह स्वामी समन्तभद्रका विशेषरण है । युक्त्यनुशासन - टीकाके निम्न पद्य में भी श्रीविद्यानंदाचार्यने आपको 'परीक्षेक्षरण' ( परीक्षादृष्टि ) विशेषरणके साथ स्मरण किया है और इस तरह पर आपकी परीक्षाप्रधानताको सूचित किया है
श्रीमद्वीर जिनेश्वरामलगुरणस्तोत्रं परीक्षेक्षणः साक्षात्स्वामिसमन्तभद्रगुरुभिस्तत्त्वं समीक्ष्याखिलं । प्रोक्तं युक्त्यनुशासनं विजयिभिः स्याद्वादमार्गानुगै— विद्यानन्दबुधैरलंकृतमिदं श्रीसत्यवाक्याधिपैः ||