________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 381 एकि नाम-कीर्तन भी-भक्ति-पूर्वक नामका उच्चारण भी.-हमें पवित्र करता है, इस लिए हम प्रापके गुणोंका कुछ-लेशमात्र-कथन ( यहाँ ) करते हैं / _इससे प्रकट है कि समन्तभद्रकी जिन-स्तुति यथार्थताका उल्लंघन करके गुणोंको बढ़ा-चढ़ाकर कहनेवानी लोकप्रसिद्ध स्तुति-जैसी नहीं है, उसका रूप जिनेन्द्र के अनन्त गुणोंमेंसे कुछ गुणोंका अपनी शक्तिके अनुसार प्रांशिक कीर्तन करना है और उसका उद्देश्य अथवा लक्ष्य है प्रात्माको पवित्र करना / प्रात्माका पवित्रीकरण पापोंके नाशसे-मोह, कषाय तथा राग-द्वेषादिकके प्रमावसेहोता है / जिनेन्द्र के पुण्य-गुणोंका स्मरण एवं कीर्तन प्रात्माको पाप-परिणतिको छुड़ाकर उसे पवित्र करता है, इस बातको निम्न कारिकामें व्यक्त किया गया है न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ ! विवान्त-वैरे: तथाऽपि ते पुण्य-गुग्ण-स्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः // 5 // इसी कारिकामें यह भी बतलाया गया है कि पूजा-स्तुतिसे जिनदेवका कोई प्रयोजन नहीं है; क्योकि वे वीतराग है-रागका अंश भी उनके मात्मामें विद्यमान नहीं है, जिससे किसीकी पूजा, भक्ति या स्तुतिपर वे प्रसन्न होते : वे तो सच्चिदानन्दमय होनेसे सदा ही प्रमन्नस्वरूप है, किसीकी पूजा प्रादिकसे उनमें नवीन प्रसन्नताका कोई मंचार नहीं होता और इसलिये उनकी पूजा भक्ति या स्तुतिका लक्ष्य उन्हें प्रमन्न करना तथा उनकी प्रसन्नता-वारा अपना कोई कार्य सिद्ध करना नहीं है मोर न वे पूजादिकमे प्रसन्न होकर या स्वेच्छासे किसीके पापोंको दूर करके उसे पवित्र करने में प्रवन होते है, बल्कि उनके पुण्य- गुरगोके स्मरणादिम पाप स्वयं दूर भागते हैं और फलतः पूजक या स्तुतिकर्ताके प्रात्मामें इसी माशयको 'युक्त्यनुशासन' को निम्न दो कारिकामों में भी व्यक्त किया गया है: याधात्म्यमुलंध्य गुणोदयाल्या लोके स्तुतिभूरिगुणोदधेस्ते / मणिष्टमप्यंशमशक्नुवन्तो वक्तु जिन ! स्वो किमिव स्तुवाम // 2 // तथापि वैम्पास्यम्पेत्य भक्त्या सोमास्मि से शरत्यनुरूप-वाक्यः / इष्टे प्रमेयेऽपि यथास्यक्ति किन्मोत्सहस्से पुरुषाः क्रियामिः // 3 //