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________________ 382 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पवित्रताका संचार होता है / इसी बातको और मच्छे शब्दों में निम्नकारिकाद्वारा स्पष्ट किया गया है स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सत.. किमेवं स्वाधीन्याजगति सुलभे श्रायसपथे स्तुयान त्या विद्वान्सततमभिपूज्यं नमिजिनम् // 116 / / इसमें बतलाया है कि-'स्तुतिके समय और स्थानपर स्तुत्य चाहे मौजूद हो या न हो और फलकी प्राप्ति भी चाहे सीधी (Direct) उसके द्वारा होती हो या न होती हो, परन्तु आत्मसाधनामें तत्पर साधुस्तोताकी-विवेकके साथ भक्तिभावपूर्वक स्तुति करनेवालेकी-स्तुति कुशलपरिणामकी-पुण्यप्रसाधक या पवित्रता-विधायक शुभभावोंकी-कारण जरूर होती है; और वह कुशलपरिणाम अथवा तज्जन्य पुण्यविशेष श्रेय फलका दाता है। जब जगतमें इस तरह स्वाधीनतामे श्रेयोमार्ग मुलभ है-स्वयं प्रस्तुत की गई अपनी स्तुतिके द्वारा प्राप्य है-तब हे सर्वदा अभिपूज्य नमि-जिन ! ऐमा कोन विद्वान्-परीक्षापूर्वकारी अथवा विवेकी जन-है जो पापकी स्तुति न करे? करे ही करे। अनेक स्थानोंपर समन्तभद्रने जिनेन्द्रकी स्तुति करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए अपनेको अज (15), बालक (30) तथा अल्पधी (56) के रूपमें उल्लिखित किया है; परन्तु एक स्थानपर तो उन्होने अपनी भक्ति तथा विनम्रताकी पराकाष्ठा ही कर दी है, जब इतने महान् ज्ञानी होते हुए मोर इतनी प्रौढ स्तुति रचते हुए भी वे लिखते है त्वमीरशस्तादृश इत्ययं मम प्रलाप-लेशोऽल्प-मतेमहामुने ! अशेष-माहात्म्यमनीरयन्नपि शिवाय संस्पर्श इवाऽमृताम्बुधेः / / 7 / / (हे भगवन् ! ) पाप ऐसे है, वैसे हैं-पापके ये गुग हैं, वे गुण हैइस प्रकार स्तुतिरूपमें मुझ अल्पमतिका-यथावत् गुणोंके परिशानसे रहित स्तोताका-यह थोड़ासा प्रलाप है। ( तब क्या यह निष्फल होगा ? नहीं।) अमृतसमुद्रके प्रशेष माहात्म्यको न जानते और न कथन करते हुए भी जिस प्रकार उसका संस्पर्श कल्याणकारक होता है उसी प्रकार हे महामुने ! मापके
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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