________________ 402 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश विशेषादिको दृष्हिसे कभी उनका सापक होता है तो कभी उनके द्वारा साध्य भी बन जाता है। जैसे सामान्यज्ञानसे भक्तियोगादिक यदि प्रारम्भ होते हैं तो विशेषज्ञानका उनके द्वारा उपार्जन भी किया जाता है। ऐसी ही स्थिति दूसरे योगोंकी है, और इसीसे एक को दूसरे योगके साथ सम्बन्धित बनाया गया है-मुरुष-गौण की व्यवस्थासे ही उनका व्यवहार चलता है। एक योग जिस समय मुख्य होता है उस समय दूसरे योग गोग्ग होते है-उन्हें सर्वथा छोड़ा नहीं जाता / तीनोंके परस्पर सहयोगसे ही प्रास्माका पूर्ण विकाम मघता अथवा सिद्ध होता है / कर्म-योग___ मन-वचन-काय-नारन्धी जिम विद्या प्रति अपना निवृझिमे पात्म. विकाम मधना है उसके लिये तदनुरूप को भी पुरुषायं किया मागे 'कर्म योग' कहते है / और इलिये कमयोग दो प्रकारका है - किसकी निवृनिका पुरुषार्थ को लिये हा और दूसरा किपाकी प्रतिमा पापाको लिये हुए / निवृत्ति प्रधान मंशेगमें मन-वचन-काय में किसी भी कियाकानीमा की क्रियाका अथवा प्रशुभक्रियाका निरोध होता है और प्रवृति प्रधान समागमे शुभकर्मोंमें त्रियोग-कियाकी प्रवृत्ति होती है---प्रशुभमें नहीं, क्योकि अशुभर में विकासमें साधक न होकर बाधक होने है। स-पादिम सहित प्रमाणप प्रवृत्ति भी इमीके अन्तर्गत है / मन पूछिये तो प्रवृति बिना निवृतिकोर निर्यात बिना प्रवृत्तिके होती ही नहीं.--एकका दूसरेके माय घनिष्ट सम्बन्ध है। दोनो मुख्य-गौण की समस्याको नियमितिम प्रतिको मोर प्रतिशेगमें निवत्तिकी गौणता / सर्वया प्रकृति या मया निवनिका एकान्त नहीं बनता। पोर इसलिये भानयोगमें जो बाने किसी-न-किमी अपने विषय हाई गई है. उचित तथा पावत्रफ बतलाई अपवा जिनका किसी भी तीर बाग स्वविकाम के लिये किया जाना विाि सबका विधान एवं अनुहान कर्मयोगमें गति है। इसी तरह जिन बातोंको दोबादिकके पो हेय बनाया गया है, विय तथा प्रकरणीय मूचित किया गया है किसी भी करके द्वारा निका बोड़ना-गजला या उनसे बिहिवारण करना चादि कहा