________________ 288 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश समुद्रके प्रोत्थानका-उसे ऊंचा उठाने या बढ़ानेका-प्रारम्भ करते समय शास्त्रकारद्वारा रचा गया है / परन्तु वे शास्त्रकार महोदय कौन है, यह कुछ स्पष्ट मालूम नहीं होता। विद्यानन्दने पासपरीक्षाकी टीकामें शास्त्रकारको सूत्रकार सूचित किया है और उन्हीं 'मुनिपुगव' का बनाया हा उक्त गुणस्तोत्र लिखा है परन्तु उनका नाम नहीं दिया। हो सकता है कि प्रापका अभिप्राय 'सूत्रकार से 'उमास्वाति' महाराजका ही हो; क्योंकि कई स्थानोंपर आपने उमास्वातिके वचनोंको सूत्रकारके नामसे उद्धृत किया है परन्तु केवल सूत्रकार या शास्त्रकार शब्दोंपरसे ही--जो दोनों एक ही अर्थ के वाचक है-उमास्वातिका नाम नहीं निकलता; क्योंकि दूसरे भी कितने ही प्राचार्य सूत्रकार अथवा शास्त्र. कार हो गए हैं, समन्तभद्र भी शास्त्रकार थे, और उनके देवागमादि ग्रन्थ सूत्रग्रन्थ कहलाते हैं / इसके सिवाय यह बात अभी विवादग्रस्त चल रही है कि उक्त 'मोक्षमार्गस्य नेता" नामका स्तुतिपद्य उमास्वातिके तत्त्वार्थमूत्रका मंगलापरण है / कितने ही विद्वान् इसे उमास्वातिके तत्त्वार्थमूत्रका मंगलाचरण मानते है, और बालचन्द्र, योगदेव तथा श्रुतसागर नामके पिछले टीकाकारोंने भी अपनी अपनी टीकामें ऐमा ही प्रतिपादन किया है ! परन्तु दूसरे कितने ही विद्वान ऐसा नहीं मानते, वे इसे तत्त्वार्थमूत्रकी प्राचीन टीका 'सर्वार्थ सिद्धि' का मंगलाचरण स्वीकार करते है और यह प्रतिपादन करते हैं कि यदि यह पद्य तत्त्वार्थमूत्रका मंगलाचरण होता तो मर्वार्थसिद्धि-टीकाके कर्ता श्रीपूज्यपादाचार्य इसकी जरूर व्याख्या करते, लेकिन उन्होंने इसकी कोई व्याख्या न करके इसे अपनी टीकाके मंगलाचरणके तौर पर दिया है और इस लिये यह पूज्यपादकृत ही मालूम होता है / सर्वार्थसिद्धि की भूमिकामें. पं. कलाप्पा भरमाप्पा निटवे भी, श्रतसागरके कथनका विरोध करते हुए अपना ऐसा ही मत प्रकट करते है. और माय ही, एक हेतु यह भी देते हैं कि नवार्थमूत्रकी रचना द्वैपायक के प्रश्नपर हुई * "देवागमनमूत्रस्य श्रुत्या सद्दर्शनान्वित:'---विक्रान्तकौरव / * श्रुतसागरी टीकाकी एक प्रतिमें 'द्वैयाक' नाम दिया है, और बालम मुनिकी टीकामें 'मिद्धय्य' ऐमा नाम पाया जाता है / देखो, जनवरी सन् 1921 का जनहितषी, पृ० 80, 81 /