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________________ २०८ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश नहीं रखते थे, जंगलमें यदि हिंस्र जंतु भी उन्हें सताते अथवा डंसमशकादिक उनके शरीरका रक्त पीते थे तो वे बलपूर्वक उनका निवारण नहीं करते थे, और न ध्यानावस्था में अपने शरीरपर होने वाले चीटी आदि जंतुनोंके स्वच्छंद विहारको ही रोकते थे । वे इन सब अथवा इसी प्रकारके और भी कितने ही उपसर्गों तथा परीषहोंको साम्यभावसे सहन करते थे और अपने ही कर्मविपाकका चिन्तन कर सदा धैर्य धारण करते थे— दूसरोंको उसमें जरा भी दोष नहीं देते थे । वर्ष । समंतभद्र सत्यके बड़े प्रेमी थे, वे सदा यथार्थ भाषण करते थे, इतना ही नहीं बल्कि, प्रमत्तयोग से प्रेरित होकर कभी दूसरोंको पीड़ा पहुँचानेवाला सावद्य वचन भी मुहसे नही निकालने थे, और कितनी ही बार मौन धारण करना भी श्रेष्ठ समझते थे । स्त्रियोंके प्रति आपका अनादरभाव न होते हुए भी आप कभी उन्हें रागभावसे नही देखते थे, बल्कि माता, बहिन और सुताकी तरह ही पहचानते थे । साथ ही, मैथुनकर्मसे, घृणात्मक दृष्टिके साथ, आपकी पूर्ण विरक्ति रहती थी, और आप उसमें द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकारको हिसाका सद्भाव मानते थे । इसके सिवाय, प्राणियोंकी ग्रहिसाको आप 'परमब्रह्म' समझते थे और जिस श्राश्रमविधिमें श्रणुमात्र भी प्रारंभ न होता हो उसीके द्वारा उस हिसाकी पूर्णसिद्धि मानते थे। उसी पूर्ण हिसा और उसी परमब्रह्मकी सिद्धि के लिए आपने अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रहांका * आपकी इस घृणात्मक दृष्टिका भाव 'ब्रह्मचारी' के निम्न लक्षण भी पाया जाता है, जिसे ग्रामने 'रत्नकरड' में दिया है मलवीज मलयोनि गलन्मलं पूति गंधि वीभत्सं । पश्यन्तं गमनं गाद्रिरमनि यो ब्रह्मचारी स ॥ १८३॥ हिमा भूताना जगति विदितं ब्रह्म परम, न मात्राभस्त्गुरपि न यत्राश्रमविधी | ततस्तत्सद्धयर्थ परमकरुणां ग्रन्थमुभयं भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतपपरितः ॥ ११६ ॥ -स्वयंभूरतोत्र ।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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