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समन्तभद्रका मुनि-जीवन और आपत्काल श्रीअलंकदेव, विद्यानंद और जिनसेन-जैसे महान् प्राचार्यों तथा दूसरे भी अनेक प्रसिद्ध मुनियों और विद्वानोंक द्वारा किये गये जिनके उदार स्मरणों एवं प्रभावशाली स्तवनों-सकीर्तनोंको पाठक इससे पहले प्रानंदके साथ पढ़ चुके हैं और उन परसे जिन प्राचार्य महोदयकी असाधारण विद्वत्ता, योग्यता, लोक
सेवा और प्रतिष्ठादिका कितना ही परिचय प्राप्त कर चुके हैं, उन स्वामी समंत: भद्रके बाधारहित और शान्त मुनि जीवन में एक बार कटिन विपत्तिकी भी एक
बड़ी भारी लहर पाई है, जिसे आपका 'आपत्काल' कहते हैं। वह विपनि क्या थी और समंतभद्रनं उमे कैसे पार किया, यह सब एक बड़ा ही हृदय-द्रावक विषय है। नीचे उमीका, उनके मुनिजीवनकी झांकी महित, कुछ परिचय और विचार पाठकोंक मामने उपस्थित किया जाता है।
मुनि जीवन ममन्तभद्र, अपनी मुनिचर्या के अनुसार, हिमा, मन्य. अग्नेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह नामके पचमहावनोंका यथेष्ट गतिमे पालन करते थे, ईर्या-भाषापपगादि पचमिनियोके परिपालन-दाग उन्हे निरन्तर पृष्ट बनाते थे, पाँचों इंद्रियोक निग्रहम मदा तत्पर, मनोगुप्ति आदि तीनों गुमियोके पालनमे धीर और सामायिकादि पडावश्यक क्रियायोके अनुष्ठानमें सदा मावधान रहते थे। वे पूर्ण अस्मिावतका पालन करते हा. कपायभावको लेकर किमी भी जीवको अपने मन, वचन या कायमे पीडा पहुँचाना नहीं चाहते थे। इम बातका सदा यत्न रखते थे कि किमी प्राणीको उनके प्रमादवरा बाधा न पहुँच जाय, इसीलिये वे दिनमें मार्ग शोधकर चलते थे, चलते ममय दृष्टिको इधर उधर नहीं भ्रमाते थे, रात्रिको गमनागमन नहीं करते थे, और इतने साधनसंपन्न थे कि मोते समय एकामनगे रहते थे----यह नहीं होता था कि निद्राऽवस्थामें एक कर्वटसे दूसरी कर्वट बदन जाय और उसके द्वारा किमी जीवजंतुको बाधा पहेच जाय. वे पीछी पुस्तकादिक किमी भी वस्तुको देख भाल कर उठाते-धरते थे और मलमूत्रादिक भी प्रासुक भूमि तथा बाधारहित एकांत स्थानमें क्षेपण करते थे । इसके सिवाय, उनपर यदि कोई प्रहार करता तो वे उसे नहीं रोकते थे, उसके प्रति दुर्भाव भी