________________ 261 Anmummmmmm matalaliNA M IndianRMARAamadise गंधस्ति महाभाज्यकी खोज भाष्यकी रचना करते हुए 'प्राप्तमीमांसा' की सृष्टि की गई है और इसलिये वह उसीका एक अंग है / हाँ, यदि किसी तरह पर यह माना जा सके कि 'प्राप्तपरीक्षा के उक्त १२३वें पद्यमें 'शास्त्रकार से समन्तभद्रका अभिप्राय है और इस लिये मंगलाचरणका वह स्तुति पर (स्तोत्र ) उन्ही का रचा हुमा है तो तत्वार्यशास्त्र' का अर्थ उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र करते हुए भी उक्त पद्यके 'प्रोत्थान ' शब्द परसे महाभाष्यका प्राशय निकाला जा सकता है; क्योंकि तत्त्वार्थमूत्रका प्रोत्थान-उसे ऊंचा उठाना या बढ़ाना-महाभाष्य जैसे ग्रन्थोके द्वारा ही होता है / और 'प्रोत्थान' का प्राशय पदि ग्रन्थकी उस 'उत्थानिका ' में लिया जाय जो कभी कभी गन्धकी रचनाका सम्बन्धादिक बतलाने के लिये शुरूमे लिखी जाती है, तो उससे भी उक्त प्राशयम कोई बाधा नही पाती; बल्कि 'भाष्यकार' को 'शास्त्रकार' कहा गया है यह मो : स्पष्ट हो जाना है; क्योकि मूल तत्त्वार्थमूत्रमे वमी कोई उत्थानिका नहीं है. वह या तो मंगलाचरणके बाद 'मर्वार्थसिद्धि' में पाई जाती और या महाभाष्यमे होगी। मार्थसिद्धि टीकाके कर्ता भी कचित् उस 'शास्त्रकार शब्दके वाच्य हो मकते है / रही भाष्यकारको शास्त्रकार कहने की बात, मा इममे कोई विरोध मालूम नहीं होता-तत्त्वार्थशास्त्रका अर्थ होनेसे जब उसके वातिक भाप्य या व्याख्यानको भी गाम्त्र' कहा जाता है तब उन वानिक-भाष्यादिके रचयिता स्वयं शास्त्रकार' सिद्ध होते हैं, उसमे कोई आपत्ति नहीं की जा सकती। और यदि उमास्वातिके तत्वार्थमूत्रद्वारा तत्वार्थशास्त्ररूपी समुद्रका प्रात्यान होनेमे 'प्रोत्थान' शब्दका वाच्य वहां उक्त तत्वार्थ मूत्र ही माना जाय तो फिर उस पहले 'तत्त्वाथशास्त्राद्भतमलिलनिधि' का वह वाच्य नहीं रहेगा, उमका वाच्य कोई अन्यविशेष न होकर सामान्य रूपमे नत्वार्थमहादधि, द्वादशांगश्रुत या कोई अंग-पूर्व ठहरेगा, और तब अष्टसहस्री तथा प्राप्नपरीक्षाके कथनोंका वही नतीजा निकलेगा जो ऊपर निकाला गया है-गंध हाम्न महाभाष्यकी a sokmakadaudakAAAAAAAAAAAA.Anirudds * जैसा कि श्लोकवातिक' में विद्यानंदाचार्यके निम्न वाक्योस भी प्रकट है'प्रसिदं च तस्वार्थस्य शास्त्रस्वे तदार्तिकस्य शास्त्रत्व सिद्धमेव तदर्थत्वात् / .........तदनेन तव्याख्यानस्य शास्त्रत्वं निवेदितम् / / "